सुबोध
साहित्य माला
सम्पादक
यशपाल जैन
प्रकाशक
यशपाल
जैन
मंत्री,
सस्ता
साहित्य
मण्डल
एन-७७,
कनॉट सर्कस,
नई
दिल्ली-११०००१
·
नई
दिल्ली
दूसरी
बार: १९९३
प्रतिया:३,०००
मूल्य
:रु०. 8.००
·
मुद्रक:
विजयालक्ष्मी
प्रिटिंग
वर्क्स, के-६
लक्ष्मी
नगर
दिल्ली-११००९२
यह
माला
इस
माला में बड़ी
सरल-सुबोध
भाषा में भारत
की आत्मा की
झांकी दिखाने
का प्रयत्न
किया गया है।
भारत संतों,
विद्वानों,
वीरों,
पर्वतों, तीर्थो,
नदियों, वनों
आदि-आदि का
देश है। उत्तर
से लेकर
दक्षीण तक और
पूर्व से लेकर
पश्चिम तक
संस्कृति की
ऐसी धारा
प्रवाहित होती
है, जो सारे
देश को एक और
अखंड बनाती
है।
भारत
में अनेक धर्म
हैं,
अनेक भाषाएं
है, नाना
प्रकार के
आचार-विचार
हैं, लेकिन
फिर भी अनेकता
के बीच एकता
दिखाई देती
है। इसका कारण
यह है कि
हमारे संतों
और
महापुरुषों
ने कभी मनुष्य
के बाहरी
भेदों पर जोर
नहीं दिया। उन्होंने
इंसान को
इंसान के रुप
में देखा।
हमारे तीर्थ,
पर्वत, नदियां
आदि किसी
धर्म-विशेषके
नहीं है, सबके
हैं।
इस
माला की
पुस्तकों के
पीछे हमारी
यही भावना है
कि पाठक अपने देश
को अच्छी तरह
देखें, उसके
असली रुप को
पहचानें और एक
महान देश के
नागरिक के
नाते उनके जो
कर्त्तव्य
हैं, उनका
पालन करें।
पुस्तकों
की भाषा इतनी
आसान है कि कम
पढ़-लिखे पाठक
भी इन्हें
अच्छी तरह पढ़
और समझ सकते
है। प्रत्येक
पुस्तक में
कई-कई चित्र
भी दिये गय हैं।
हम आशा
करते है कि
पाठक इन
पुस्तकों को
बड़े चाव से
पढ़ेंगे,
दूसरों को
पढ़वायंगे और
इनका भरपूर
लाभ लेंगे।
--मंत्री
पाठकों से
प्रत्येक
देश में
नदियों की
बड़ी महिमा
होती है। उनके
किनारे पर
संस्कृति
जन्म लेती है
और फलती-फूलती
है। उनके पानी
की सिंचाई से खेती
होती है और
लोगों को जीवन
धारण करने के
लिए अन्न
प्राप्त होता
है।
हमारे देश में छोटी-बड़ी अनेक नदियां हैं। उनके प्रति भारतवासी बड़ा आदरभाव रखते हैं। इस पुस्तक में गंगा,यमुना, नर्मदा और कावेरी, इन चार नदियों का परिचय दिया गया है। ये नदियां अपनी-अपनी विशेषता रखती है। इन्होंने देश को बहुत-कुछ दिया है, आज भी दे रही है, आगे भी देती रहेंगी। सबसे बड़ी बात यह है कि वे देती हैं, पर बदले में कुछ भी नहीं लेतीं। सेवा करना ही इनका धर्म है।
हम
चाहते है कि
हमारे पाठक,
विशेषकर नई
पीढ़ी इनसे
आत्मीयता का
नाता जोड़े और
समझे कि हमें
उन्हीं की तरह
त्याग और सेवा
का जीवन बनाना
और बिताना है।
--संपादक
अनुक्रम
1
गंगा रामचन्द्र
तिवारी
यमुना विष्णु
प्रभाकर
नर्मदा बैजनाथ
महोदय
कावेरी पूर्ण
सोमसुन्दरम
1 1
गंगा
भगवान
राम के कुल
में राजा हुए
हैं, सगर, राम
से बहुत पहले।
वह बड़े वीर
थे। बड़े
साहसी थे। उनका
दबदबा चारों
ओर फैला हुआ
था। राज जब
बहुत दूर-दूर
तक फैल गया तो
राजा ने यज्ञ
किया।
पुराने
समय में
अश्वमेध यज्ञ
का रिवाज था।
इस यज्ञ में
होता यह था कि
एक घोड़ा पूजा
करके छोड़
दिया जाता।
घोड़ा जिधर
मरजी हो, जाता।
उसके पीछे
राजा की सेना
रहती। अगर
किसी ने उस
घोड़े को पकड
लिया तो सेना
उसे छुड़ा
लेती। जब
घोड़ा चारों
ओर घूमकर वापस
आ जाता तो
यज्ञ किया
जाता और वह
राजा
चक्रवर्ती
माना जाता।
राजा
सगर इसी
प्रकार का
यज्ञ कर रहे
थे। भारतवर्ष
के सारे राजा
सगर को
चक्रवर्ती
मानते थे, पर
देवों के राजा
इंद्र को सगर
की बढ़ती
देखकर बड़ी
जलन होती थी।
जब उसे मालूम हुआ कि सगर
अश्वमेध यज्ञ
करने जा रहे
हैं तो वह
चुपके से सगर
के पेजा करके
छोड़े हुए घोड़े
को चुरा ले
गया और बहुत
दूर कपिल मुनि
की गुफा में
जाकर बांध
दिया।
दूसरे
दिन जब
घोड़ेको
छोड़ने की
घड़ी पास आई तो
पता चला कि
अश्वशाला में
घोड़ा नहीं
है। सबके
चेहरे उतर
गये।
यज्ञ-भूमि में
शोक छा गया।
पहरेदारों
ने खोजा, सिपाहियों
ने खोजा, उनके अफसरों
ने खोजा, पास खोजा
और दूर खोजा पर
घोड़ा न मिला तो
महाराज के पास
समाचार पहुंचा।
महाराज ने सुना
और सोच में
पड़ गये।
रातोंरात
घोड़े को इतनी
दूर निकाल ले
जाना मामूली
चोर का काम
नहीं हो सकता
था।
राजा सगर की बड़ी रानी का एक बेटा था। उनका नाम था असमंजस। असमंजस बालकों को दुखी करता था और उनको मार डालता था। सगर ने लोगों की की पुकार सुनी और अपने बेटे असमंजस को देश से निकाल दिया। असमंजस का पुत्र था अंशुमान।
राजा
सगर की छोटी
रानियों के
बहुत से बेटे
थे। कहा जाता
है कि ये साठ
हजार थे। सगर
के ये पुत्र
बहुत बलवान
थे, बहुत चतुर
थे और तरह-तरह
की विद्याओं
को जानने वाले
थे। जो चाहते
थे, कर सकते
थे।
जब
सिपाही घोड़े
का पता लगाकार
हार गये तो
महाराज ने
अपने साठ हजार
पुत्रों को बुलाया
और कहा, ‘‘पुत्रो
चोर ने
सूर्यवंश का
अपमान किया
है। तुम सब
जाओ और घोड़े
का पता लगाओ।’’
राजकुमारों
ने घोड़े को
खोजना शुरु
किया। उसे
झोंपड़ियों में
खोजा, महलों
में खोजा,
खेड़ों में
खोजा, नगलों
में खोजा,
गांवों और
कस्बों में
खोजा, नगरों
और
राजधानियों
में खोजा।
साधुओं के
आश्रमों में
गये, तपोवनों
में गये और
योगियों की गुफाओं
में पहुंचे।
पर्वतों के
बरफीले सफेद
शिखरों पर
पहुंचे और
नीचे उतर आये।
वन-वन घूमे, पर
यज्ञ का
घोड़ाउनको
कहीं नहीं
दिखाई दिया।
खोजते-खोजते
वे धरती के
छोर तक जा
पहुंचे। अब आगे
समुद्र था। पर
राजकुमार
घबराये नहीं।
वे पानी में
उतर गये।
डुबकी लगाकर
वे किनारे गुफाओं
में देख आये।
तैरकर वे
दूर-दूर वे
दूर-दूर तक की
खबर ले आये।
जहां उनको
गुफा का संदेह
हुआ वहां
खोद-खोदकर
देखा। पर
घोड़ा वहां भी
नहीं मिला।
चूंकि सगर के
पुत्रों ने
समुद्र की
इतनी खोजबीन
की, इसलिए
समुद्र ‘सागर’ भी
कहलाने लगा।
घोड़ा
नहीं मिला,
फिर भी
राजकुमार
हारे नहीं। खोजने
की धुन में
लगे रहे। वे
बंगाल के
किनारे सागर
से निकले और
फिर थल पर
खोजना शुरु
किया।
वे
आगे बढ़ रहे
थे कि हवा चल
पड़ी। एक लता
हिली और वे
ठिठक गये। लता
के पीछे कुछ
था, जिसने उनको
रोक लिया। लता
हटाई। एक शिला
दिखाई पड़ी।
शिला
को परखा गया। मालूम हुआ कि उसे किसने ने वहां जमा दिया है। शिला हटाई जाने लगी। देखते-देखते शिला के पीछे एक गुफा का मुंह निकल आया। राजकुमार गुफा में घुस गये। थोड़ी दूर अंधेरे में चले और पिर उजाले में आ पहुंचे। यहां जो देखा तो चकित हो गये।
उन्होंने
देखा कि एक
बहुत पुराना
पेड़ है। उसके
नीचे एक
दुबला-पतला ऋषि
बैठा है। वह
अपनी समाधि
में लीन मालूम
होता है। ऋषि
के पीछे कुछ
दूर पर एक और
पेड़ है। उसके
तने से एक
घोड़ा बंधा
है। कुछ
राजकुमार
दोड़कर घोड़े
के पास गये।
घोड़ा पहचान
लिया गया। यह
वही घोड़ा था।
घोड़े को
पाया, ऋषि को
देखा, तो उनका
क्रोध भड़क
उठा।
राजकुमारों
ने बहुत शोर
मचाया। उनमें
से एक ऋषि को
खींच लेने के
लिए आगे बढ़
गया। उसने
अपना हाथ
बढ़ाया। उसका
हाथ ऋषि के
शरीर पर पड़ा
कि ऋषि की देह
कांपी और वह
समाधि से
जागे।
उनकी
आंखें खुलीं।
उनकी आंखों
में तेज भरा
था। वह तेज
राजकुमारों
के ऊपर पउ़ा
तो गजब हो गया।
महा बलवान
राजकुमार
भकभकाकर जल
उठे। जब ऋषि
की आंखें पूरी
तरह से खुलीं
तो उन्होंने
अपने सामने
बहुत सी राख
की ढेरियां
पड़ी पाई। ये
राख की
ढेरियां साठ
हजार थी।
·
साठ
हजार
राजकुमारों
को गये बहुत
दिन हो गये। उनकी
कोई खबर न
मिली। राजा
सगर की चिंता
बढ़ने लगी। तभी
एक दूत ने आकर
बताया कि
बंगाल से कुछ
मछुवे आये
हैं, उनसे
मैंने अभी-अभी
सुना है कि
उन्होंने
राजकुमारों
को एक गुफा
में घुसते
देखा और वे
अभी तक उस
गुफा से
निकलकर नहीं
आये।
सगर
सोच में पड़
गये। हो न हो,
राजकुमार
किसी बड़ी
मुसीबत में
फंस गये हैं।
उनको विपत से
उबारने का
उपाय करना
चाहिए। राजा
ने ऊंच-नीच
सोची,
आगा-पीछा सोचा
और अपने पोते
अंशुमान को
बुलाया।
अंशुमान
के आने पर सगर
ने उसका माथा
चूमकर उसे
छाती से लगा
लिया और पिर
कहा, ‘‘बेटा,
तुम्हारे साठ
हजार चाचा
बंगाल में
सागर के
किनारे एक
गुफा में
घुसते हुए देखे
गये हैं, पर
उसमें से
निकलते हुए
उनको अभी तक
किसी ने नहीं
देखा है।’’
सगर
ने कहा, ‘‘बेटा,
तुम्हारे साठ
हजार....’’
अंशुमान
का चेहरा खिल
उठा। वह बोला, ‘‘
बस! यही
सामचार है।
यदि आप आज्ञा
दें तो मैं जाऊं
और पता लगाऊं।”
सगर
बोले, ‘‘जा,
अपने चाचाओं
का पता लगा।”
जब
अंशुमान जाने
लगा तो बूढ़े
राजा सगर ने
उसे फिर छाती
से लगाया,
उसका माथा
चूमा और आशीष
देकर उसे विदा
किया।
अंशुमान
इधर-उधर नहीं
घूमा। उसने
पता लगाया और
उसी गुफा के
दरवाजे पर
पहुंचा। गुफा
के दरवाजे पर
वह ठिठक गया।
उसने कुल के देवता
सूर्य को
प्रणाम किया
और गुफा के
भीतर पैर रखा।
अंधेरे से
उजाले में
पहुंचा तो
अचानक रुककर
खड़ा हो गया।
उसने जो देखा,
वह अदभुत था। दूर-दूर
तक राख की
ढेरियां फैली
हुई थीं। ऐसी कि
किसी ने सजाकर
फैलद दी हों।
इतनी ढेरियां
किसने लगाई?
क्यों लगाई?
वह उन ढेरियों
को बचाता आग
बढ़ा। थोड़ा
ही आगे गया था
कि एक गम्भीर
आवाज उसे
सुनाई दी, ‘‘आओ,
बेटा अंशुमान,
यह घोड़ा बहुत
दिनों से
तुम्हारी
राह देख रहा
है।”
अंशुमान चौंका। उसने एक दुबले-पतले ऋषि हैं, जो एक घोड़े के निकट खड़े है। इनको मेरा नाम कैसे मालूम हो गया? यह जरुर बहुत पहुंचे हुए हैं। अंशुमान रुका। उसने धरती पर सिर टेककर ऋषि को नमस्कार किया
“आओ बेटा,
अंशमान, यह
घोड़ा
तुम्हारी राह
देख रहा है।”
ऋषि
बोले, ‘‘बेटा
अंशुमान, तुम
भले कामों में
लगो। आओ मैं कपिल
मुनि तुमको
आशीष देता
हूं।”
अंशुमान
ने उन महान कपिल
को बारंबार
प्रणाम किया।
कपिल
बोले, “जो
होना था, वह हो
गया।”
अंशुमान
ने हाथ जोड़कर
पूछा, “क्या
हो गया, ऋषिवर?”
ऋषि
ने राख की
ढेरियों की ओर
इशारा करके
कहा, “ये
साठ हजार
ढेरियां
तुम्हारे
चाचाओकं की हैं,
अंशुमान!”
अंशुमान
के मुंह से
चीख निकल गई।
उसकी आंखों से
आंसुओं की
धारा बह चली
ऋषि
ने समझाया, “धीरज
धरो बेटा,
मैंने जब
आंखें खोलीं
तो तुम्हारी
चाचाओं को फूस
की तरह जलते
पाया। उनका
अहंकार उभर
आया था। वे
समझदारी से
दूर हट गये
थे। उन्होंने
सोच-विचार
छोड़ दिया था।
वे अधर्म
पर थे। अधर्म
बुरी चीज है।
पता नहीं, कब
भड़क पड़े।
उनका अधर्म
भड़का और वे
जल गये। मैं
देखता रह गया।
कुछ न कर सका।”
अंशुमान
ने कहा, “ऋषिवर!”
कपिल
बोले, “बेटा,
दुखी मत होओ।
घोड़े को ले
जाओ और अपने
बाबा को धीरज
बंधओ।
महाप्रतापी
राजा सगर से
कहना कि आत्मा
अमर है। देह
के जल जाने से
उसका कुछ नहीं
बिगड़ता।”
अंशुमान
ने कपिल के
सामने सिर
झुकाया और
कहा, “ऋषिवर!
मैं आपकी
आज्ञा का पालन
करुंगा। पर
मेरे चाचाओं
की मौत आग में
जलने से हुई
है। यह अकाल
मौत है। उनको
शांति कैसे
मिलेगी?”
कपिल
ने कुछ देर
सोचा और बोले, “बेटा,
शांति का उपाय
तो है, पर काम
बहुत कठिन है।”
अंशुमान
ने सिर झुकाकर
कहा, “ऋषिवर
! सूर्यवंशी
कामों की
कठिनता से
नहीं डरते।”
कपिल
बोले, “गंगाजी
धरती पर आयें
और उनका जल इन
राख की ढेरियों
को छुए तो
तुम्हारे
चाचा तर
जायंगे।”
अंशुमान
ने पूछा, “ गंगाजी
कौन हैं और
कहां रहती है?”
कपिल
ने बताया, “गंगाजी
विष्णु के
पैरों के नखों
से निकली हैं
और ब्रहा के
कमण्डल में
रहती हैं।”
अंशुमान
ने पूछा, “ गंगाजी
को धरती पर
लाने के लिए
मुझे क्या करना
होगा?”
ऋषि
ने कहा, “ तुमको
ब्रहा की
विनती करनी
होगी। जब
ब्रहा तप पर
रीझ जायंगे तो
प्रसन्न होकर
गंगाजी को धरती
पर भेज देंगे।
उससे
तुम्हारे
चाचाओं का ही
भला नहीं
होगा, और भी
करोंड़ों
आदमी तरह-तरह
के लाभ उठा
सकेंगे।”
अंशुमान
ने हाथ उठाकर
वचन दिया कि
जबतक गंगाजी
को धरती पर
नहीं उतार
लेंगे, तबतक
मेरे वंश के
लोग चैन नहीं
लेंगे।
कपिल
मुनि ने अपना
आशीष दिया।
·
अंशुमान
सूरज के वंश
के थे। इसी
कुल के
सत्यवादी
राजा हरिश्चन्द्र
को छोटे बड़े
सब जानते हैं।
अंशुमान ने
ब्रहाजी की
विनती की।
बहुत कड़ा तप
किया। तप में
अपना शरीर
घुला दिया।
अपनी जान दे दी,
पर ब्रहाजी
प्रसन्न नहीं
हुए।
अंशुमान
के बेटे हुए
राजा दिलीप।
दिलीप ने पिता
के वचन को
अपना वचन
समझा। वह भी
तप करने में
जुट गये। बड़ा
भारी तप किया।
ऐसा तप किया
कि ऋषि और मुनि
चकित हो गये।
उनके सामने
सिर झुका
दिया। पर
ब्रहा उनके तप
पर भी नही
रीझी।
दिली
के बेटे थे
भगीरथ। भगीरथ
के सामने बाबा
का वचन था,
पिता का तप
था। उन्होंने
मन को चारों
ओर से समेटा
और तप में लगा
दिया। वह थे
और था उनका
तप।
सभी
देवताओं को
खबर लगी।
देवों ने
सोचा, “गंगाजी
हमारी हैं। जब
वह उतरकर धरती
पर चली जायंगी
तो हमें कौन
पूछेगा?”
देवताओं
ने सलाह की।
ऊंच-नीच सोची
और फिर उर्वशी
तथा अलका को
बुलाया गया।
उनसे कहा गया
कि जाओ, राजा
भगीरथ के पास
जाओ और ऐसा
यतन करो कि वह
अपने तप से
डगमगा जाय।
अपनी राह से
विचलित हो जाय
और छोटे-मोटे
सुखों के
चंगुल में फंस
जाय।
अलका
और उर्वशी को
देखा। उर्वशी
ने भगीरथ को देखा।
एक सादा सा
आदमी अपनी धुन
में डूबा हुआ
था।
उन
दोनों ने अपनी
माया फैलाई।
भगीरथ के
चारों ओर बसंत
बनाया।
चिड़ियां
चहकने लगीं।
कलियां चटकने
लगी। मंद पवन
बहने लगा।
लताएं झूमने
लगीं। कुंजे
मुस्कराने
लगीं।
दोनों
अप्सराएं
नाचीं। माया
बखेरी। मोहिनी
फैलाई और चाहा
कि भगीरथ के
मन को मोड़ दें।
तप को तोड़
दें।
पर
वह नहीं हुआ।
जब
उर्वशी का
लुभावबढ़ा तो
भगीरथ के तप
का तेज बढ़ा।
दोनों हारीं
और लौट गई।
उनके
लौटते ही
ब्रहा पसीज
गये। वह सामने
आये और बोले, “बेटा,
वर मांगा! वर
मांग!”
भागीरथ
ने ब्रहाजी को
प्रणाम किया
और बोले, “यदि आप
मुझसे
प्रसन्न हैं
तो गंगाजी को
धरती पर
भेजिये।”
भागीरथ
की बात सुनकर
ब्रहाजी ने
क्षणभर सोचा,
फिर बोले, “ऐसा
ही होगा,
भगीरथ।”
ब्रहाजी
बोले, “ऐसा
ही होगा,
भगीरथ!”
ब्रहाजी
के मुंह से यह
वचन निकले कि
उनके हाथ का
कमण्डल बड़े
जोर से कांपने
लगा।
ऐसा लगता था
जैसे कि वह फटकर
टुकड़े-टुकड़े हो
जायगा।
थोड़ी
देर बाद उसमें
से एक स्वर
सुनाई दिया, “ब्रहा,
यु तुमने क्या
किया? तुमने
भगीरथ को क्या
वर दे डाला?”
ब्रहा
बोले, “मैंने
ठीक ही किया
है, गंगा!”
गंगा
चौंकीं।
बोलीं, “तुम मुझे
धरती पर भेजना
चाहते हो और
कहते हो कि
तुमने ठीक ही
किया है!”
“हां,
देवी!”
ब्रहा ने कहा।
“कैसे?”
गंगा ने पूछा।
ब्रहा
ने बताया, “देवी,
आप संसार का
दु:ख दूर करने
के लिए पैदा
हुई हैं। आप
अभी मेरे
कमण्डल में
बैठी हैं।
अपना काम नहीं
कर रही हैं।”
गंगा
ने कहा, “ब्रहा,
धरती पर पापी
रहते है।,
पाखंडी रहते
हैं, पतित
रहते हैं। तुम
मुझे उन सबके
बीच भेजना चाहते
हो! बताओ,
मैंने
तुम्हारा
क्या बिगाड़ा है?”
ब्रहा
बोले, “देवी,
आप बुरे को
भला बनाने के
लिए बनी हैं।
पापी को
उबारने के लिए
बनी हैं।
पाखंड मिटाने
के लिए बनी
हैं। पतित को
तारने के लिए
बनी हैं। कमजोरों
को सहारा देने
के लिए बनी
हैं और नीचों
को उठाने के
लिए बनी हैं।”
गंगा
ने कहा, “ब्रहा!”
ब्रहा
बोले, “देवी,
बुरों की भलाई
करने के लिए
तुमकों बुरों
के बीच रहना
होगा।
पापियों को
उबारने के लिए
पापियों के
बीच रहना
होगा।
पाखंडको
मिटाने के लिए
पाखंडके बीच
रहना होगा।
पतितों को
तारने के लिए
पतितों के बीच
रहना होगा। कमजोरों
को सहारा देने
के लिए
कमजोरों के
बीच रहना होगा
और नीचों को
उठाने के लिए
नीचों के बीच
निवास करना
होगा। तुम
अपने धरम को
पहचानो, अपने
करम को जानो।”
गंगा
थोड़ी देर चुप
रहीं। फिर
बोलीं, “ब्रहा,
तुमने मेरी
आंखें खोल दी
हैं। मैं धरती
पर जाने को
तैयार हूं। पर
धरती पर मुझे
संभालेगा कौन?”
ब्रहा
ने भगीरथ की
ओर देखा।
भगीरथ
ने उनसे पूछा, “आप
ही बताइये।”
ब्रहा
बोले, “तुम
भगवान शिव को
प्रसन्न करो।
यदि वह तैयार
हो गये तो
गंगा को संभाल
लेंगे और गंगा
धरती पर उतर
आयंगी।”
ब्रहा
उपाय बताकर
चले गये।
भगीरथ अब शिव
को रिझाने के
लिए तप करने
लगे।
भगवान
शिव को कौन
नहीं जानता?
गांव-गांव में
उनके शिवाले
हैं, वह भोले
बाबा हैं।
उनके हाथ में
त्रिशूल है,
सिर पर जटा है,
माथे पर चांद
है। गले में
सांप हैं।
शरीर पर भेभूत
है। वह शंकर हैं।
महादेव हैं।
औढर-दानी है।
वह सदा देते
रहते है। और
सोचते रहते
हैं कि लोग और
मांगें तो और
दें। भगीरथ ने
बड़े भक्ति
भाव वे विनती
की। हिमालय के
कैलास पर
निवास करने
वाले शंकर रीझ
गये। भगीरथ के
सामने आये और
अपना उमरु
खड़-खड़ाकर बोले,
“मांग
बेटा, क्या
मांगता है?”
भगीरथ
बोले, “भगवान,
शंकर की जय हो!
गंगामैया
धरती पर उतरना
चाहती हैं,
भगवन! कहती
हैं.....”
शिव
ने भगीरथ को
आगे नहीं
बोलने दिया।
वह बोले, “भगीरथ,
तुमने बहुत
बड़ा काम किया
है। मैं सब बातें
जानता हूं।
तुम गंगा से
विनती करो कि
वह धरती पर
उतरें। मैं
उनको अपने
माथे पर धारण
करुंगा।”
भगीरथ
ने आंखें ऊपर
उठाई, हाथ
जोड़े और
गंगाजी से
कहने लगे, “मां,
धरती पर आइये।
मां, धरती पर
आइये। भगवान शिव
आपको संभाल
लेंगे।”
भगीरथ
गंगाजी की
विनती में लगे
और उधर भगवान
शिव गंगा को
संभालने की
तैयार करने
लगे।
गंगा
ने ऊपर से
देखा कि धरती
पर शिव खड़े
हैं। देखने
में वह छोटे
से लगते हैं।
बहुत छोटे से
। वह
मुस्कराई। यह
शिव और मुझे
संभालेंगे?
मेरे वेग को
संभालेंगे? मेरे
तेज को
संभालेंगे?
इनका इतना
साहस? मैं इनको
बता दूंगी कि
गंगा को
संभालना सरल
काम नहीं है।
भगीरथ ने विनती की। शिव होशियार हुए और गंगा आकाश से टूट पड़ीं। गंगा उतरीं तो आकाश सफेदी से भर गया। पानी की फहारों से भर गया। रंग-बिरंग बादलों से भर गया। गंगा उतरीं तो आकाश में शोर हुआ। घनघोर हुआ, ऐसा कि लाखों-करोड़ों बादल एक साथ आ गये हों, लाखों-करोड़ों तूफान एक साथ गरज उठे हों। गंगा उतरीं तो ऐसी उतरीं कि जैसे आकाश से तारा गिरा हो, अंगारा गिरा हो,
गंगा ने ऊपर से देख कि शिव नीचे खडे
बिजली गिरी हो। उनकी कड़क से आसमान कांपने लगा। दिशाएं थरथराने लगी। पहाड़ हिलने लगे और धरती डगमगाने लगी। गंगा उतरीं तो देवता डर गये। काम थम गये। सबने नाक-कान बंद कर लिये और दांतों तले उंगली दबा ली। गंगा उतरीं तो भगीरथ की आंखें बंद हो गई। वह शांत रहे। भगवान का नाम जपते रहे। थोड़ी देर में धरती का हिलना बंद हो गया। कड़क शांत हो गई और आकाश की सफेदी गायब हो गीई।
भगीरथ ने भोले भगवान की जटाओं में गंगाजी के लहराने का सुर सुना। भगीरथ को ज्ञान हुआ कि गंगाजी शिव की जटा में फंस गई हैं। वह उमड़ती हैं। उसमें से निकलने की राह खोजती हैं, पर राह मिलती नहीं है। गंगाजी घुमड़-घुमड़कर रह जाती हैं। बाहर नहीं निकल पातीं।
भगीरथ
समझ गये। वह
जान गये कि
गंगाजी भोले
बाबा की जटा
में कैद हो गई
है। भगीरथ ने
भोले बाबा को
देखा। वह शांत
खड़े थे।
भगीरथ ने उनके
आगे घुटने
टेके और हाथ
जोड़कर बैठ
गये और बोले, “हे
कैलास के
वासी, आपकी जय
हो! आपकी जय हो!
आप मेरी विनती
मानिये और
गंगाजी को
छोड़ दीजिये!”
भगीरथ
ने बहुत विनती
की तो शिव
शंकर रीझ गये।
उनकी आंखें
चमक उठीं। हाथ
से जटा को
झटका दिया तो
पानी की एक
बूंद धरती पर
गिर पड़ी।
बूंद
धरती पर
शिलाओं के बीच
गिरी, फूली और
धारा बन गई।
वह उमड़ी और
बह निकली।
उसमें से कलकल
का स्वर
निकलने लगा।
उसकी लहरें
उमंग-उमंगकर किनारों
को छूने लगीं।
गंगा धरती पर
आ गई। भगीरथ
ने जोर से कहा, “गंगामाई
की जय!”
गंगामाई
ने कहा, “भगीरथ, रथ
पर बैठो और
मेरे आगे-आगे
चलो।”
भगीरथ
रथ पर बैठे।
आगे-आगे उनका
रथ चला, पीछे-पीछे
गंगाजी बहती
हुई चलीं। वे
हिमालय की
शिलाओं में
होकर आगे
बढ़े। घने
वानों को पार
किया और मैदान
में उतर आये।
ऋषिकेश
पहुंचे और
हरिद्वार
आये। आगे बढ़े
तो
गढ़मुक्तेश्वर
पहुंचे।
आगे
चलकर गंगाजी
ने पूछा, “क्यों
भगीरथ, क्या
मुझे
तुम्हारी
राजधानी के दरवाजे
पर भी चलना
होगा?”
भगीरथ
ने हाथ जोड़कर
कहा, “नहीं
माता, हम आपको
जगत की भलाई
के लिए धरती
पर लाये हैं।
अपनी राजधानी
की शोभा बढ़ाने
के लिए नहीं।”
गंगा
बहुत खुश हुई।
बोलीं, “भगीरथ,
मैं तुमसे
बहुत प्रसन्न
हूं। आज से
मैं अपना नाम
भी भागीरथी
रखे लेती हूं।”
भगीरथ
ने गंगामाई की
जय बोली और वह
आगे बढ़े। सोरो,
इलाहाबाद,
बनारस, पटना
होते हुए कपिल
मुनि के आश्रम
में पहुंचे।
साठ हजार राख
की ढेरियां
उनके पवित्र
जल में डूब
गई। वह आगे
बढ़ीं तो उनको
सागर दिखाई
दिया। सागर को
देखते ही खिलखिलाकर
हंस पड़ीं और
बोलीं, “बेटा
भगीरथ, अब तुम
लौट जाओ। मैं
यहीं सागर में
विश्राम
करुंगी।”
·
तबसे
गंगा आकाश से
हिमालय पर
उतरती हैं।
सत्रह सौ मील
धरती सींचती
हुई सागर में
विश्राम करने
चली जाती हैं।
वह कभी थकमती
नहीं, अटकती
नहीं। वह
तारती हैं,
उबारती हैं और
भलाई करती
हैं। यही उनका
काम है। वह इसमें
सदा लगी रहती
हैं।1
यमुना
भारत
के उत्तर में
हिमालय पर्वत
है। इसकी एक चोटी
का नाम
बन्दरपुच्छ
है। यह चोटी
उत्तरप्रदेश
के
टिहरी-गढ़वाल
जिले में है।
बड़ी ऊंची है,
२०,७०० फुट।
इसे सुमेरु भी
कहते हैं।
इसके एक भाग
का नाम
कलिंद है।
यहीं से यमुना
निकलती है।
इसीसे यमुना
का नाम
कलिंदजा और
कालिंदी भी
है। दोनों का
मतलब कलिंद की
बेटी होता है।
यह जगह बहुत
सुन्दर है, पर
यहां पहुंचना
बहुत कठिन है।
स्वामी रामतीर्थ
वहां पहुंचे
थे। बस बर्फ
की पहाड़ी
दीवार पर
चढ़ना था, पैर
फिसला और सीधे
यमपुर। पर चढ़
ही गये। आगे
खूब घना वन
आया। अन्धेरा
इतना कि पेड़
की डाल भी न
सूझे। उसके
बाद वे खुले
मैदान में
पहुंचे। वहां
हवा में मीठी
सुवास थी।
जमीन फिसलनी,
चारों ओर
हरियाली की
भरमार। मनोहर
फूलों के
छोटे-छोटे
पौधे। सब थकान
उतर गई। जैसे
नया जीवन
मिला।
फूलों
के इसी प्रदेश
के पास एक
हिमानी से
यमुना जन्म
लेती है, फिर ८
कि.मी. नीचे
उतरकर घाटी में
आती है। इस
घाटी का नाम ‘जमनोत्री’ की
घाटी’
है। इस घाटी
में खड़े होकर
देखो, दो पतली
धाराएं पहाड़
से उतरती
दिखाईदेती
हैं, जैसे
चांदी के झरने
हों। नीचे
दोनों मिल
जाती हैं और
यमुना कहलाती
हैं। इस घाटी
की ऊंचाई
१०,८०० फुट
है। यहां
यमुनाजी का एक
छोटा सा मंदिर
है। गरम पानी
के कई सोते
है। एक तो
इतना गरम है
कि उसमें आलू
उबल जाते हैं।
हर साल
गर्मियों में
हजारों
यात्री यहां आते हैं, गरम
कुंड में नहाते
हैं और
यमुना मैया की
जन्मभूमि के दर्शन
करते हैं ।
यह घटी मनोरम नहीं है। दोपहर बाद कोहरा छा जाता है। ६ महीने बर्फ जमी रहती है। गरम कुंड में नहाते हैं और यमुना मैया की जन्मभूमि के दर्शन करते हैं। यह घटी मनोरम नहीं है। दोपहर बाद कोहरा छा जाता है। ६ महीने बर्फ जमी रहती है।
यमुना नदी का नाम वेदों में आता है, पुराणों में आता है। रामायण, महाभारत में भी आता है। कहते हैं, यमुनामैया सूरज की बेटी है।
इसके
भाई यमराज
हैं। इसलिए
इनका एक नाम ‘यमी’ भी
है। सूरज की
बेटी होने के
कारण ‘सूर्य-तनया’
कहलाती हैं।
इसका पानी
बहुत साफ पर
कुछ नीला, कुछ
सांवला है,
इसलिए इन्हें ‘काला
गंगा’ और
‘असित’ भी
कहते हैं।
असित एक ऋषि
थे। सबसे
पहले
यमुनामैया
की जन्मभूमि
का पता
इन्होंने ही लगाया
था। शायद
इसीलिए यमुना
का एक नाम ‘असित’
पड़
गया है। अब
बन्दरपुच्छ
के नाम की कहानी
सुनिये।
रामचन्द्रजी
लंका को जीतकर
अयोध्या लौट
आये। राज करने
लगे।
हनुमानजी
बहुत थक गये
थे। थकान
उतारने के लिए
वह सुमेरु पर
पहुंचे।
यहां
से कोई ४०
कि.मी. नीचे एक
जगह है ‘गंगानी’।
यहां नीले
रंगवाली
यमुना ऐसी
लगती हैं जैसे
कोई पहाड़ी
युवती हो।
चेचल, पर
बलवती।
ऊंचे-नीचे
मार्गो पर
भागती जा रही
हैं, किसी से
मिलने। पर
यमुना के देश
में यह ‘गंगानी’
नाम कैसा?
इसकी भी एक
कहानी है।
पुराने जमाने में
यहां एक ऋषि
रहते थे। गंगा
यहां से कुल
२५ कि.मी. दूर
है। पर एक
विकट पहाड़
पार करना होता
है। वह ऋषि उस
राढ़ी पर्वत
को पार करके
रोज गंगा
नहाने जाते
थे। एक दिन वह
बूढ़े हुए। तब
उनसे चला नहीं
गया।
उन्होंने ‘गंगामैया’ को
पुकारा। मैया
प्रसन्न हुई
और यमुना के
किनारे एक
कुंड में आकर
रहने लगीं। वह
कुंड आज भी
है। ऐसा लगता
है किसी साहसी
ने गंगा की एक
धारा को इधर
मोड़ दिया था।
शायद उन ऋषि
ने ही कोई
जुगत की हो।
बहुत
दूर तक यमुना
इसी तरह
उछलती-कूदती
चलती है।
छोटे-मोटे
बहुत से झरने,
बहुत सी
नदियां इसमें
मिलती हैं।
इसी तरह
सिरमौर की
सीमा के पास
देहरादून की घाटी
में पहुंच
जाती है। यहां
कालसी-हरिपुर
के पास इनकी
बहन टौंस
(तमसा) इससे
मिलने आती है।
यह संगम बड़ा
पावन माना
जाता है। ‘हयहय’
क्षत्रिय
पुराने जमाने
में बड़े
मशहूर हुए। कार्तवीर्यार्जुन
जैसा वीर इसी
जाति में हुआ
था। इसी का
नाम
सहस्रार्जुन
था, परशुराम
ने इसी को
मारा था। इस
जाति का
आदि-पुरुष ‘हयहय’
यहीं पैदा हुआ
था। कुछ लोग
मानते हैं कि
चन्द्रवंश के
राजा पुरुरवा
की राजधानी
यहीं कहीं थी।
वह एक पहाड़ी
नरेश था और
यहीं उर्वशी
उनसे मिली थी।
उनके पोते
ययाति ने नीचे
उतरकर मैदान
में अपना राज
फैलाया।
इन्हीं के कुल
में आगे चलकर
श्रीकृष्ण,
कौरव और
पाण्डव हुए और
पहाड़ों में
पहले किन्नर,
सिद्ध,
गन्धर्व आदि जातियां
रहती थीं। ये
लोग बहुत
खूबसूरत और
नाचने-गाने के
शौकीन थे।
उर्वशी
इन्हीं में से
किसी जाति की
रही होगी।
कुछ
दूर शिवालिक
पहाड़ियों
में घूम-घामकर
यमुना नदी
पहाड़ों से
विदा लेती है।
अपना पीहर
छोड़ देती है
और फैजाबाद
(जिला
सहारनपुर) के
स्थान पर
मैदानों में
प्रवेश करती
है। बस, यहीं
से यह उपकार
में लग जाती
है। सिंचाई
करने को लोग
नदियों से नहर
निकालते है।
जिन नदियों से
हमने पहले-पहल
नहर निकाली,
उनमें यमुना
भी है। ६०० साल
पहले दिल्ली
में फिरोज
तुगलक राज
करता था। उसने
फैजाबाद के
पास से यमुना
नदी से एक नहर
निकाली थी। आज
इस नहर का नाम ‘पच्छिमी
यमुना नहर’
है। यह
अम्बाला,
हिसार और
करनाल आदि
जिलों को सीचाती
है। लेकिन यह
नहर शुरु से
ही ऐसी नहीं थी।
कुछ दिन बाद
ही बुंद हो गई
थी। २०० साल
बाद अकबर ने
इसे पुर ठीक
करवाया। उसे हांसी-हिसार
के
शिकारगाहों
के लिए पानी
की जरुरत थी।
शाहजहां उसकी
एक शाखा
दिल्ली तक ले
गया। ५० साल
बाद यह नहर
फिर खराब हो
गई। लार्ड हेस्टिंग्ज
के समय में
कप्तान व्लेन
ने उसे फिर चालू
किया। यह १८१८
ई० की बात है।
तबसे इसे बहुत
बार ठीक किया
गया, क्योंकि
यह दुधारु गाय
है। आज जो
इसका रुप है,
उसके लिए बहुत
पैसा खर्च
हुआ। एक तरह
से इसे नये
सिरे से बनाया
गया।
जहां
से यह नहर
निकली है, बाद
में उसी के
सामने बाएं
किनारे से एक
और नहर निकाली
गई। कब
निकाली गई,
इसका ठीक पता
नहीं। २०० साल
तो हो ही गये
होंगे। इसे
दोआब नहर कहते
थे। आज यह
सहारनपुर,
मुजफ्फरनगर
और मेरठ के जिलों
को सींचती है।
वह दिल्ली के
पास यमुना में
मिल जाती है।
यह भी कई बार
खराब हुई कई
बार बनी। आखिर
३ जनवरी, २८३०
को यह काम
पूरा हुआ। यह ‘पूर्वी
यमुना नहर’
कहलाती है। पहले
दोनों नहरें
उत्तरप्रदेश
सरकार के हाथ
में थीं, अब ‘पश्चिमी
नहर’
पंजाब सरकार
के हाथ में
है। २८७९ ई०
में ताजेवाला
में नया
हेडवर्क्र्स
बन गया। अब
दोनों नहरों
को यहीं से
पानी दिया
जाता है। इन
नहरों के कारण
पंजाब और
उत्तर प्रदेश
का बहुत सा
इलाका खुशहाल
हुआ है। जो
देश खेती पर
जीता है उस
देश में
नदियों की
बड़ी कीमत
होती है।
यमुना ऐसी ही
एक कीमती नदी
है।
नहरों
का दान करने
के बाद यमुना
बहुत धीरे-धीरे
चलने लगती है।
बहुत दूर तक
वह पंजाब और
उत्तरप्रदेश
की सीमा बनी
रहती है। एक
ओर पानीपत, रोहतक
के जिले हैं
तो दूसरी ओर
मुजफ्फरनगर
और मेरठ के।
पानीपत
में तीन-तीन
बार भारत के
भाग्य का फैसला
हुआ।
कुरुक्षेत्र
में महाभारत
का युद्ध लड़ा
गया। ये दोनों
यमुना से दूर
नहीं हैं। वह
वीरों का
सिंहनाद
सुनती है।
गीता की वाणी
भी सुनती है।
मेरठ में १८५९
की आजादी की
लड़ाई शुरु
हुई थी, इसे भी
वह अच्छी तरह
जानती है।
यही
सब
जानती-बूझती
वह भारत की
राजधानी
दिल्ली के पास
आ पहुंचती है।
कितनी बार यह
राजधानी बनी,
कितनी बार
उजड़ी, कितने
राज उठे,
कितने राज
मिटे, यमुना
सबकुछ देखती
रहीं।
१८५७
से लेकर १९४७
तक की आजाद की
लड़ाई शानदार
है १५ अगस्त,
१९४७ के दिन
लाल किले पर
तिरंगे को
देखकर यमुना की
छाती फूल उठी
थी। लेकिन
उसके बाद उसने
जो कुछ देखा,
उसे देखना
वज्र की छाती
का ही काम था। राष्ट्रपिता
महात्मा
गांधी की
हत्या इसी
राजसी दिल्ली
में हुई।
राजघाट पर
यमुना ने उस
शान्तिदूत को
अपने पास ही
सुला रखा है। जबतक
यमुना जीती
है, वह भी जीता
है।
दिल्ली
में यमुना ने
राजाओं को
देखा,
शूर-वीरों को
देखा, साहित्य
के दीवानों को
भी देखा। व्यास
यहां न जाने
कितनी बार
आये।
चन्दबरदाई ने यहीं
रासो की रचना
की। फिर
गालिब,
जौक,
मीर, सौदा और
मोमिन एक से
एक बढ़कर शायर
यहीं पर हुए।
यहीं हिन्दी
जन्मी और
उर्दू परवान चढ़ी।
और
दिल्ली की
कला, यहां का
लाल किला,
यहां के भवन,
यहां की
मस्जिदें,
मीनारें,
मकबरे इस
कहानी का कोई
अंत नहीं।
दिल्ली
से चलकर यमुना
ओखला पहुंचती
है। वैसे यह
दिल्ली का ही
भाग है। यमुना
को फिर
किसानों की
याद आती है। ५
मार्च, १८७४
को यहां से एक
नहर निकाली गई
इसे ‘आगरा
नहर’
कहते हैं।
इसमें केवल
यमुना का ही
पानी नहीं है,
हिंडन और बाद
में गंगा
की नहर
से भी पानी
लिया गया। इस
तरह इस नहर
में प्रयोग से
बहुत पहले
गंगा-यमुना का
संगम हो जाता
है। यह नहर
ताज के बगीचों
को सींचती है।
आगरा नगर को
पीने का पानी
देती है। कई
रेलवे स्टेशन
भी इसी से
पानी लेते है।
·
·
दिल्ली से चलकर यमुना दनकौर के स्थान पर हिंडन नदी को अपने साथ ले लेती है। एक बाद फिर पंजाब और उत्तरप्रदेश की सीमा बनती है। एक ओर गुड़गांव, दूसरी ओर बुलन्दशहर। उसके बाद मथुरा में प्रवेश करती है। मथुरा के साथ युगों का इतिहास जुड़ा हुआ है। इसके आसपास का प्रदेश शूरसेन जनपद कहलाता है। यहीं यदु के वंशवाले यादव बसे। यहीं शत्रुघ्न ने लवणासुर को मारकर राम-राज्य स्थापित किया। यहीं कृष्ण हुए, वही कृष्ण, जिन्होंने यादव-संघ की रक्षा की वही कृष्ण कन्हैया, जिसके चरित्र से ब्रजभूमि
का
चप्पा-चप्पा
पावन हो चुका
है। मथुरा
वृन्दावन की
तो शोभा ही
निराली है।
यमुना के
कानों में
मुरली की मधुर
आवाज आज भी
हिलोरें पैदा
करती है।
यमुना का
कन्हैया
देखते-देखते
ब्रज की सीमाओं
को लांघकर
सारे भारत में
रम गया।
भगवन
बन गया। उसके
प्रेम में
पागल होकर
चैतन्य, सनातन
और वल्लभ जैसे
न जाने कितने
दीवाने सन्त
यमुना के तट
पर आये। न
जाने कितने
कवियों ने
उसके गुण गाकर
कविता को पावन
किया। वह देखो,
हिन्दी
कविता-गगन के
सूर्य सूरदास,
कण्ठ के जादूगर
और संगीत के
स्वामी
हरिदास, मर्मी
कवि नन्ददास और....कितने
नाम गिनाये
जायं। वेदों
के पंडित स्वामी
बिरजानन्द
सरस्वती भी
यहीं रहती थे।
यहीं स्वामी
दयानन्द से
उन्होंने वचन
लिया था, “वेदों का
प्रचार करने
के लिए
प्राणों का
मोह नहीं
करुंगा।”
लेकिन
दयानन्द ही
क्यों, बुद्ध
की मथुरा पर
क्या कम कृपा
रही है! अपनी शिक्षाओं
का प्रचार
करने के लिए
अशोक भी यहां
आये। यमुना के
तट पर
उन्होंने एक
स्तूप स्थापित
किया। कनिष्क
युग की मूर्ति
कला कितनी
महान है।
हुएनसांग आदि
भारत में
आनेवाले सभी
यात्री मथुरा
जरुर आये।
सबने उसकी
बहुत तारीफ
की। कालिदास
ने भी की।
अबतक
यमुना अधिकतर
दक्षीण की ओर
चल रही थी। यहां
से पूरब की ओर
मुड़ जाती है।
बहन गंगा से
मिलना जो है।
बस, इसी तरह
पहुंच जाती है
आगरा।
आगरा
बहुत पुराना
नगर है। राज्य
की रक्षा और व्यापार,
सभी तरह से
इसका महत्व
है।
राजपूताना और
मालवा दोनो से
आनेवाले
रास्ते यहीं
यमुना पार करते
हैं। सिकन्दर
लोदी ने इस
बात को समझा
था। दक्षीण के
बागियों पर
अंकुश रखने के
लिए इससे अच्छा
स्थान और नहीं
था। इसलिए
१५०३ ईस्वी
में उसने यहां
राजधानी
बनाई। उसका
बसाया हुआ सिकन्दरा,
आज के आगरा से
केवल ८ कि.मी.
दूर है। अकबर
वहीं सोया हुआ
है। आगरा के
किले की नीवं
लोधी ने रखी
थी। अकबर ने
उसे शुरु
किया, शाहजां
ने उसे पूरा
किया। इसी
किले में
ग्वालियर के
कछवाहा राजा
ने हुमायूं को
कोहेनूर दिया था।
इसी किले के
सामने, यमुना
के किनारे,
शाहजहां की
आंख का आंसू
ताल खड़ा है।
ताज, जिसकी
रुपरेखा
शीराज-निवासी
उस्ताद ईसा ने
तैयार की,
जिसका
निर्माण भारत,
बगदाद, बुखारा
और समरकन्द के
कारीगरों ने
किया,
जो प्यार की
सबसे प्यारी
यादगार हैं,
जो सफेद
संगमरमर में
की गई विरह की
सबसे पावन कविता
है, जो काल के
कपोल पर पड़ा
एक आंसू है।
एतमादुद्दौला
का मकबरा,
सिकन्दरा में
अकबर का
मकबरा, किले
में मोती
मस्जिद, ये सब
कला के अजूबे
हैं।
आगरा
में शाहजहां
ने प्यार को
अमर किया,
आगरा में
औरंगजेब ने
प्यार के
कलेजे में
खंजर भोंका।
·
·
यमुना
अब फिर पूरब
की ओर बढ़
जाती है।
रास्ते में
करवान और बेन
गंगा दौड़ी
हुई आती हैं
और उसकी गोद
में सो जाती
हैं। इटावा के
पास यमुना के
कछार में चन्दावर
का मैदान है।
इस मैदान में
बूढ़े जयचन्द
ने
शहाबुद्दीन
गोरी के
पठानों से गजब
का लोहा लिया
था। यमुना इस
कहानी को
जानती है।
इसके बाद वह
पहुंचती है
कालपी। लेकिन
उससे पहले
उत्तर से
आनेवाली
सेंगेर से
उसकी भेंट हो
जाती हैं, पर
दक्षीण से जो
स्नेह लेकर
चम्बल आती है,
उसकी तो बात
ही निराली है।
चम्बल विन्ध्य
पर्वत की बेटी
है। साथ में
अरावली का जल
भी लाती है।
यमुना में
मिलकर वह
उत्तर-दक्खिन
का भेद मिटा
देती है।
चम्ब्ल का
दूसरा नाम
चर्मण्वती
है। यह वैदिक
काल की नदी
है। प्रसिद्ध दानी
राजा
रन्तिदेव इसी
के किनारे पर
राज करते थे।
महाभारत
और
पुराण उसके यश
के गीतों से
भरे पड़े हैं।
उसने अनेक
यज्ञ किये।
उनमें अनगिनत
पशु मारे जाते
थे। उनके खून
से चम्बल
हमेशा लाल
रहती थी। इन
पशुओं के चमड़े सुखाने
के लिए नदी के
किनारे डाले
जाते थे। कहते
हैं, इसीलिए
इसका नाम
चर्मण्वती हुआ।
कुछ दूर चलने
पर मालवा से
ही नन्हीं सी
सिन्ध लपकी
हुई आती है और
यमुना की गोदी
में छिप जाती
है।
कालपी पुरानी नगरी है। मालवा और बुन्देलखंड से आनेवाले रास्ते यहीं यमुना पार करते हैं। इस कारण इसका बहुत महत्व रहा है। इसी से मुसलमान, मरहठे और अंग्रेज सभी ने बारी-बारी से इस पर अधिकार किया है। लेकिन कालपी के साथ एक और गौरव भरी कहानी जुड़ी हुई है। यहां से ९ कि.मी. दूर, गलौली में, १८५७ की
आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी। इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई ने जो वीरता दिखाई थी, उससे सभी चकित रह गये थे।
यमुना
आगे वेत्रवती
(बेतवा) को
अपने साथ ले
लेती है। पर
दक्किखन ने
अभी अपना पूरा
कर कहां चुकाया
है? बांदा
जिले में
पहुंचने पर
केन भी अपना
जल यमुना को
अर्पण करने आ
पहुंची।
आगे
आता है कोसम।
आज यह गांव है,
पर कभी इसी का
नाम कौशाम्बी
था। इसके साथ
उदयन और
वासवदत्ता की
प्रेम-कहानी
जुड़ी हुई है।
राम और कृष्ण
के बाद हमारे
साहित्य में
उदयन का ही
नाम आता है।
कालिदास ने ‘मूघदूत’
में इस प्रेम
कहानी की
चर्चा की है।
इस नगर की खुदाई
में बहुत सी
पुरानी चीजें
मिली हैं, जो
पुराने भारत
के बारे में
बहुत जानकारी
देती हैं।
कहते हैं,
गंगा
हस्तिनापुर
को बहा ले गई
थी, तब कौरवों
का राजघराना
यहीं आ बसा
था। इसी
राजकुल में
राजा उदयन
हुआ। उसी के समय
में गौतम
बुद्ध यहां दो
साल रहे।
बोद्ध धर्म का
यहां एक बहुत
बड़ा विहार
था। चन्दन की
बनी तथागत की
एक विशाल
मूर्ति भी थी।
इसे राजा उदयन
ने बनवाया था।
एक कुंए और
स्नानघर का भी
पता लगा है।
तथागत वहां
नहाया करते थे।
वहां एक स्तूप
भी था। इसमें
तथागत के केश
और नाखून रखे
थे। राजा होने
से पहले अशोक
भी कौशाम्बी
में रहता था।
बाद में उसने
यहां अपनी लाट
खड़ी की। यह
लाट अब
इलाहाबाद के
किले में है।
यहीं पर
समुद्रगुप्त
ने एक
साथ
आर्यवर्त्त
के राजाओं का
मान मर्दन किया
था। इसके बाद
यमुना आगे
बढ़ी और एकदम
प्रयाग में
बहन के गले से
जा मिली।
·
·
हिमालय
में बहुत
पास-पास दोनों
बहनों का घर
है। पर यहां
१०६५ कि.मी.
चलकर कहीं
यमुना गंगा से
मिल पाती हैं।
यमुना ने गंगा को अपना जल ही नहीं दिया, जीवन भी दे दिया। तब से आजतक लाख-लाख नर-नारी इस अनोखे मिलन को देखने के लिए आते
रहते
हैं। इसे
देखकर राम ने
सीता से कहा
था, “देखो,
यमुना की
सांवली लहरों
से मिली हुई
उजली लहरों
वाली गंगाजी
कैसी सुन्दर
लग रही हैं।
कहीं ऐसा लगता
है कि मानो
सफेद कमल के
हार में नील
कमल गूंथ दिये
हों, कहीं छाया
में विली
चांदनी,
धूप-छांव
सी छिटकी हुई
सी लगती हैं।
कहीं जैसे शरद
के आकाश में
बादलों की
रेखा के भीतर
से नील गगन
छलक पड़ता हो।
जो गंगा-यमुना
के संगम में
नहाते हैं, वे
ज्ञानी न भी
हों, तो भी
संसार से पार
हो जाते है।”
यह
भी कहा जाता
है कि यहां
पहले यमुना ही
बहती थी, गंगा
बाद में आई।
गंगा के आने
पर यमुना अर्ध्य
लेकर आगे आई,
लेकिन गंगा ने
उसे स्वीकार नहीं
किया। बोली, “तुम
मुझसे बड़ी
हो। मैं
तुम्हारा
अर्ध्य लूंगी
तो आगे मरा
नाम ही मिट
जायगा। मैं
तुममें समा जाऊंगी।” यह
सुनकर यमुना
बोली, “बहन,
तुम मेरे घर
मेहमान बनकर
आई हो। मैं ही
तुममें लीन
हो
जाऊंगी।
चार सौ कोस तक
तुम्हारा ही
नाम चलेगा,
फिर मैं तुमसे
अलग हो
जाऊंगी।”
गंगा ने यह बात मान ली और इस तरह गंगा और यमुना एक-दूसरे के गले मिलीं। गंगा-यमुना के बारे में और भी कई कथाएं कही जाती हैं। गंगा का जल सफेद, यमुना का नीला। दोनों का रंग अलग-अलग दिखाई देता है। पर संगम से आगे गंगा का जल भी कुछ नीला हो जाता है। कहते हैं कि यहां से नाम गंगा का रह जाता है और रंग यमुना का। सूर्य की कन्या माने जाने के कारण समुना का पानी कुछ गर्म है। साफ भी बहुत है। उसमें कीटाणु भी नहीं होते।
जहां
यह संगम है, वह
स्थान
त्रिवेणी
कहलाता है।
कहते हैं,
सरस्वती भी
यहीं पर गंगा
में मिलती है,
लेकिन वह
दिखाई नहीं
देती। यह
दिखाई नहीं
देती। यह
स्थान बड़ा पावन
है। माघ के
महीने में हर
साल यहां मेला
लगता है।
बारहवें साल
कुम्भ के अवसर
पर लाखों नर-नारी
यहां
इकट्रठेहोते
हैं। छठे साल
अर्द्धकुम्भी
का मेला भी
जोर-शोर से
लगता है। देश
के कोने-कोने
से लाखों
नर-नारी, साधु
सन्त यहां आते
हैं।
आज से
साढ़े बारह सौ
साल पहले हर्ष
भारत का राजा
था। वह हर
पांचवे साल
संगम पर एक
सभा किया करता
था। ऐसी ही
सभा में
हुएनसांग भी
शामिल हुआ था।
उसने लिखा, “इस
सभा में भारत
के अनेक राजा
आये थे।
महाराजा ने
अपना सब धन
पुजारियों,
विधवाओं और
दीन-दुखियों
को दान कर
दिया था। जब
कुछ न बचा तो
राजमुकुट दे
दिया, मोतियों
का हार भी दे
दिया, यहां तक
कि पहनने के
कीमती कपड़े
भी दे दिये।
अपने पहनने के
लिए एक वस्त्र
अपनी बहन
जयश्री से मांगा।”
प्रयाग
को आज
इलाहाबाद
कहते हैं।
अकबर ने इसका
नाम
अल्लाहाबाद
रखा था। वही
बिगड़कर
इलाहाबाद हो
गया।
गंगा-यमुना के
बीच की जगह
उसे बड़ी
पसन्द आई वहां
उसने किला बनवाया।
यह लाल पत्थर
का बना हुआ
है। इसकी एक
दीवार यमुना
के किनारे है,
दूसरी गंगा के
सामने। इस
किले में अशोक
की लाट है। इस
किले में अक्षय
वट है।
हुएनसांग के
वर्णन से जान
पड़ता है कि
तब यह वट
मन्दिर के
आंगन में खड़ा
था। उसकी
पत्तियां और
शाखाएं
दूर-दूर तक
फैली हुई थीं।
पर अब वहां
पेड़ नहीं है।
दीवार में एक बड़ा
आला है। उसमें
पुरानी लकड़ी
का एक मोटा गोल
टुकड़ा रखा
है। उस पर
कपड़ा लिपटा
है। यही अक्षय
वट बताया जाता
है।
इस
किले में कभी
बहुत महल थे।
कुएं, बावड़ी
और नहरें भी थीं।
यमुना की ओर
जो महल थे, वही
से अकबर
गंगा-यमुना की
शोभा देखा
करता था।
नर्मदा
नर्मदा
हमारी
प्राचीन
संस्कृति की
ही नैहर नहीं
है, बल्कि वह
दक्षीण भारत
और उत्तर
भारत, द्रविड़
संस्कृति और
आर्य संस्कृति
को
जोड़नेवाली
एक कड़ी भी
है। यही नहीं,
हमारे
आदिवासी
भाइयों की
संस्कृति भी
इसी के आसपास
विकसित हुई
है। उन्होंने
हजारों साल तक
इसके तट पर
राज्य किया है
और जगह-जगह पर
अपने दुर्ग
खड़े किये
हैं, जिनके
खंडहर अब भी उनके
पुराने वैभव
की याद दिलाते
हैं।
नर्म
का अर्थ है ‘क्रीडा’।
छोटे-छोटे
बच्चों से
लेकर
बड़े-बड़े
तैराक भी इसके
जल में
आनंदपूर्वक
क्रीडा कर
सकते हैं,
इसलिए इसे ‘नर्मदा’
कहते है। और
यह
उछलती-कूदती,
छलांगें
मारती रेव
जाती है,
इसलिए इसका
नाम ‘रेवा’ भी
है।
नर्मदा
अमरकण्टक से
निकलती है।
सोहागपुर तहसील
में विन्ध्य
और सतपुड़ा
पहाड़ों में
अमरकण्टक नाम
का एक छोटा सा
गांव है। उसी
के पास से
नर्मदा एक
गोमुख से
निकलती है।
यहां
पर एक छोटा सा
कुंड बना दिया
गया है। और आसपास
कई छोटे-बड़े
मंदिर खड़े कर
दिये गए हैं।
कहते हैं,
किसी जमाने
में यहां पर
मेकल, व्यास,
भृगु और कपिल
आदि ऋषियों ने
ओर स्वयं
भगवान शंकर ने
तपस्या की थी।
यह स्थान
समुद्र की सतह
से कोई तीन
हजार फुट से
अधिक ऊंचा है।
अमरकण्टक से निकलकर नर्मदा विन्ध्य और सतपुड़ा के बीच से होकर भड़ोंच के पास खम्भात की खाड़ी में अरब सागर से जा मिलती है। अमरकण्टक
से
भड़ोंच तक
नर्मदा को कोई
तेरह सौ कि.मी.
की यात्रा
करनी पड़ती
है। परिक्रमा
करनेवालों के
लिए यह लंबाई
दोनों तरफ
मिलकर लगभग तीन
हजार कि.मी. से
अधिक हो जाती
है। बीच में
कोई चार सौ
छोटे बड़े
गांव दोनों
तटों पर
मिलाकर पड़ते
हैं।
लोगों
की राय है कि
भारत की सबसे
पुरानी
संस्कृति का
विकास नर्मदा
के किनारे पर
ही हुआ। कहते
हैं, सारा
संसार जब जल में
मग्न हो गया,
तब जो स्थान
बचा था, वह था
मार्कण्डेय
ऋषि का आश्रम।
यह आश्रम
नर्मदा के तट
पर
ऊंकारेश्वर
में है। इसके
अलावा मौजूदा
महेश्वर के आसपास
जो खुदाई हुई
है, उसमें पाई
गई हजारों
वर्ष पुरानी
चीजें भी इस
बात को सिद्ध
करती हैं।
नर्मदा के किनारे बहुत से स्थानों पर सुगंधित भस्म के टीले आज भी पाये जाते हैं। इससे यह अनुमान किया जाता है कि यहां बहुत से यज्ञ हुए थे, जिनका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है।
नर्मदा एक पहाड़ी नदी है। कई स्थानों पर इसकी धारा बड़ी ऊंचाई से गिरती है। उसके पाट के बीच में भी अनेक स्थानों पर बड़ी-बड़ी चट्टाने आ गई हैं, जिनसे उसकी गहराई कम हो गई है। इस कारण नदी में नावें नहीं चल सकती। इसी तरह उसका प्रवाह बहुत नीचा होने और आसपास का प्रदेश पहाड़ी होने के कारण इसके पानी से सिंचाई का काम भी नहीं लिया जा सकता।
नर्मदा
का उदगम होने
से अमरकण्टक
का एक बड़ी तीर्थ
है। गांव बहुत
छोटा है।
इंदौर की
महारानी
अहिल्याबाई
की बनवाई एक
बड़ी
धर्मशाला यहां
है। चारों ओर
बियाबान जंगल
है, जिसमें
जानवरों का डर
सदा बना रहता
है। पछवा हवा
जोर से चलती
रहती है।
जाड़े के
दिनों में
कंडक बहुत
रहती है। लगभग
३०००फुट से भी
अधिक की ऊंचाई
पर होने के
कारण गरमी के
दिनों में बड़ा
आनंद रहता है।
नर्मदा
जहां से
निकलती है,
वहां एक छोटा
सा कुण्ड बना
हुआ है। कहते
हैं, नागपुर
के किसी
भोंसले राजा
ने इसे बनवाया
था। कुण्ड के
चारों ओर सीढ़ियां
बनी हुई हैं।
इसके आसपास
बने हुए मंदिरों
में दो नर्मदा
के, दो गौरी
शंकर के, एक
श्रीरामचंद्र
का, एक
मुरली-मनोहर
का और दूसरे
कई
देवी-देवताओं
के हैं।
अमरकण्टक
में हर साल
महाशिवरात्रि
पर मेला लगता
है। उस समय
हजारों
यात्री आते
हें, कुण्ड में
स्नान करते
हैं और शंकर
की तथा नर्मदा
की पूजा करते
हैं। यहां पर
पर्वत बहुत ही
रमणीय है।
जड़ी-बूटियों
और फूल-फलों
का भण्डार है।
यहीं
से नर्मदा की
पावन यात्रा
प्रारंभ होती
है। सबसे पहला
महत्व का
स्थान आता है
मंडला, जो
अमरकण्टक से
कोई २९५ कि.मी.
की दूरी पर
नर्मदा के
उत्तरी तट पर
बसा है। यहां
पर नर्मदा का
दृश्य बहुत सुन्दर
है। तीर पर
सुन्दर घाट
बने हुए हैं
और उनके ऊपर
कई मंदिर।
नर्मदा के किनारे एक पुराना किला है, जिसे गढ़-मण्डला के राजा नरेन्द्र शाह ने सन १६८० के आसपास बनवाया था और मण्डला को अपनी राजधानी बना दिया था। किला अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। उसके अंदर राजेश्वरी का मन्दिर है, जिसमें दूसरे देवताओं के साथ एक मूर्ति सहस्रार्जुन की है। कुछ लोगों का कहना है कि यह मण्डला ही प्राचीन माहिष्मती है और भगवान शंकराचार्य का मण्डन मिश्र से यहीं पर शास्त्रार्थ हुआ था, परन्तु इस विषय में सब एक राय नहीं हैं।
मण्डला
के पास
पहाड़ियां
हैं, जिनके
कारण नर्मदा
की धारा
सैकड़ों
छोटी-छोटी
धाराओं में
बंट गई है।
इसलिए इस
स्थान का नाम ‘सहस्रधारा’ हो
गया है।
कहते हैं,
यहां पर राजा
सहस्रबाहु ने
अपनी हजार
भुजाओं से
नर्मदा के
प्रवाह को
रोकने का
प्रयत्न किया
था।
सहस्रधारा का
दृश्य बहुत
सुन्दर है।
मण्डला
के बाद दूसरा
सुन्दर स्थान
है भेड़ा-घाट
।
यह
जबलपुर से १९
कि.मी. पर है।
वहां तक पक्की
सड़क है। जबलपुर
से इटारसी
जानेवाली
रेलवे लाइन पर
इसी नाम का
रेलवे स्टेशन
है। वहां से
यह स्थान
साढ़े चार
कि.मी. पड़ता
है। किसी
जमाने में
भृगु ऋषि ने
यहां पर तप
किया था।
उत्तर की ओर
से वामन गंगा
नाम की एक
छोटी नदी
नर्मदा में
मिलती है। इस
संगम (भेड़ा)
के कारण ही इस
स्थान को ‘भेड़ा-घाट’
कहते हैं।
भेड़ा-घाट
से थोड़ी दूर
पर नर्मदा का
एक प्रपात है।
इसे ‘धुआंधार’
कहते हैं।
यहां नर्मदा
की धारा कोई
४० फुट ऊपर से
बड़ी तेजी से
नीचे गिरती
है। जल के कण
दूर से धुएं
के समान दीखते
हैं। इसी से
इस े ‘धुआंधार’
कहते हैं।
धुआंधार
के बाद साढ़े
तीन कि.मी. तक
नर्मदा का प्रवाह
सफेद संगमरमर
की चट्रानों
के बीच से गुजरता
है। दोनों ओर
सौ-सौ फुट से
भी अधिक ऊंची सफेद
दीवारें खड़ी
हैं और इठलाती
हुई नर्मदा उनके
बीच से होकर
निकलती
है।
चांदनी रात
में यह दृश्य
बड़ा ही
आकर्षक लगता
है। एक जगह पर
तो ये चट्रटाने
इतनी पास आ
जाती हैं कि
बन्दर बड़ी आसानी
से इधर से उधर
कूद सकते हैं।
इसलिए इस जगह
को ‘बन्दर-कूदनी’
कहते हैं।
हमारे देश के
बहुत ही
सुन्दर स्थानों
में से यह एक
है।
भेड़ा-घाट
में एक छोटी
सी पहाड़ी पर
गौरीशंकर
मंदिर है। इसे
‘चौसठ
योगिनियों का
मंदिर’ भी कहते
हैं। इस
पहाड़ी के
दोनों ओर
नर्मदा बहती
है। त्रिपुरी
के महाराज
कर्ण देव की
महारानी
अल्हणा देवी
ने सन ११५५-५६
में यहीं
मंदिर बनवाया
था। अब
उसकी हालत
अच्छी नहीं
है।
योगिनियों की
मूर्तियां भी
खंडित हैं।
भेड़ा-घाट
के बाद दूसरे
सुन्दर स्थान
हैं- ब्रहाण
घाट, रामघाट,
सूर्यकुंड और
होशंगाबाद।
ब्राहाण-घाट
से थोड़ी दूर
पर नर्मदा की
दो धारांए हो
गई हैं। वहां
बीच में एक
छोटा सा द्वीप
बन गया है,
जिसकी शोभा
देखती ही बनती
है। कुछ आगे जाकर
धारा एक छोटी
सी पहाड़ी पर
से गिरती है
और वहां कई
धाराओं में
बंट जाती है।
इसी कारण इस
स्थान को ‘सप्त
धारा’
कहते हैं। इन
धाराओं के
नीचे बहुत
बड़े-बड़े और
गहरे कुंड बन
गये हैं। इनके
नाम भीम,
अर्जुन और
ब्रहादेव आदि
के नाम पर पड़
गये हैं। कहते
हैं, ब्रहादेव
ने यहां यज्ञ
किया था।
यहां
से कुछ दूरी
पर नर्मदा के
दक्षीण तट पर
रानी दुर्गावती
का बनवाया हुआ
विशाल घाट और
एक शिव मंदिर
है। इसी के
पास अपने
दोनों दांतों
पर पृथ्वी को
धारण किये
वराह भगवान की
एक मूर्ति है।
सांडिया में
शांडिल्य ऋषि
ने अपनी पत्नी
सहित वर्षो तक
तप किया था।
कई बड़े-बड़े
यज्ञ किये थे।
सांडिया से
साढ़े आठ
कि.मी. आगे नर्मदा
के दक्षीणी तट
पर माछा ग्राम
के पास कुब्जा
नदी का संगम
है।
इसे ‘रामघाट’
कहते हैं।
अयोध्या के
राजा रंतिदेव
ने प्राचीन
काल में यहां
पर महान
बिल्व-यज्ञ
किया था। इस
यज्ञ से एक
विशाल ज्योति
प्रकट हुई थी।
तब से इसका
नाम ‘बिल्वाम्रक
तीर्थ’ हो गया।
कुछ
दूरी पर सूर्य
कुंड तीर्थ
है। कहा जाता
है कि यहां
भगवान सूर्य
नारायण ने
अंधकासुर को मारा
था।
बांदरा
भान में तबा
नाम की नदी
नर्मदा में
मिलती है।
यहां पर
प्रयाग के
त्रिवेणी
संगम की याद आ
जाती है। कहा
जाता है, जहां
राजा वैश वानर
ने तप किया
था। बांदरा
भान ने नौ कि.मी.
पर दक्षीण तट
पर होशंगाबाद
नगर है। कहते
हैं, मालवा के
सुलतान
होशंगशाह ने
इसे बसाया था।
यहां पहले जो
गांव था, उसका
नाम ‘नर्मदापुर’
था। यहां पर
सुन्दर पक्के
घाट बने हैं।
पास में एक
धर्मशाला और
नर्मदा का
मंदिर है।
इसके
बाद मेल घाट
सांडिया और
नेमावर के पास
पहुंच जाते
हैं। मेल घाट
जामनेर नदी के
संगम पर है।
यहां
आत्माराम
बाबा नामक एक
संत पुरुष की समाधि
है। उनकी
पुण्यतिथि पर
यहां हर साल
मेला लगता है।
नेमावर
में
सिद्धेश्वर
महादेव का एक
सुन्दर प्राचीन
मन्दिर है।
कला का यह एक
देखने योग्य
नमूना है।
नेमावर नर्मदा
की यात्रा का
बीच का पड़ाव
है। इसलिए इसे
‘नाभि
स्थान’ भी कहते
हैं। यहां से
भड़ोंच और
अमरकण्टक समान
दूरी पर है।
नेमावर और ॐकारेश्वर के बीच धायड़ी कुण्ड नर्मदा का सबसे बड़ा जल-प्रपात है। ५० फुट की ऊंचाई से यहां नर्मदा का जल एक कुण्ड में गिरता है। जल के साथ-साथ इस कुण्ड में छोटे-बड़े पत्थर भी गिरते रहते हैं। वे घुट-घुटकर सुन्दर, चिकने, चमकीले शिवलिंग बन जाते हैं। सारे देश में शंकर के जितने भी मन्दिर बनते हैं, उनके लिए शिवलिंग अक्सर यहीं से जाते हैं। मध्य रेलवे के बीच स्टेशन से यह स्थान कोई २० मील है। यहीं पुनासा की जल विद्युत-योजना का बांध तबा नदी पर बना है।
अब
हम नर्मदा के
तट पर बसे
ऊंकारेश्वर
नामक स्थान पर
आ पहुंचे, जो
प्राकृतिक
सौंदर्य,
इतिहास और
साधना की
दृष्टि
से रेवा-तीर
पर सबसे महान
और पवित्र
माना जाता है।
यह पश्चिम
रेलवे की छोटी
लाइन पर
इन्दौर और खंडवा
के बीच
ऊंकारेश्वर-रोड
नामक रेलवे
स्टेशन से ११
कि.मी. पर है।
पक्की डामर की
सड़क है। इन्दौर,
खण्डवा,
ऊंकारेश्वर-रोड
और सनावद से
रोज मोटरें
जाती हैं।
ऊंकारेश्वर
एक प्राचीन
तीर्थ है।
यहां नर्मदा
के बीच में एक
टापू है, या
यों
कहिये
कि एक विशाल
ऊंची पहाड़ी
है, जिसके
दोनों ओर से
नर्मदा की
धाराएं बहती
हैं। टेकड़ी
के दक्षीणी
ढाल पर
ऊंकारेश्वर
का मन्दिर है।
दक्षीणवाली
धारा के दोनों
ओर बगस्ती है।
दक्षीण वाली
बस्ती का नाम
है। ‘विष्णुपुरी’ और
उत्तरवाली
बस्ती का नाम
है ‘शव-पुरी’।
यह द्वादश
ज्योतिर्लिगों
में से एक है।
दक्षीण तट पर
अमरेश्वर का
सुन्दर
मन्दिर है।
मन्दिर अति
प्राचीन है।
नीचे एक धारा
दक्षीण से आकर
नर्मदा में एक
गोमुख से होकर
गिरती है। इसे
‘कपिल
धारा संगम’
कहते हैं।
कपिल-धारा के
पूर्व में भी
कुछ बस्ती है।
उसका नाम
ब्रहापुरी
है।
विष्णुपुरी
के पश्चिम में
कुछ दूरी पर
मार्कण्डेयशिला
नाम की
चट्रटान है।
श्रद्धालु यात्री
इस पर आकर
लेटते हैं।
उनका विचार है
कि ऐसा करने
से यमपुर की
यातनाओं से
मुक्ति मिल जाती
है। इसी के
समीप पहाड़ी
पर
मार्कण्डेय
ऋषि का मन्दिर
है और पास में
श्री मामानंद
चैतन्य का
आश्रम है।
विष्णुपुरी
से शिवपुरी तक
नाव से जाते
हैं। शिवपुरी में
एक पक्के घाट
के पास जाकर
नाव लगती है।
इसे ‘कोटि-तीर्थ’
अथवा ‘चक्र-तीर्थ’
कहते हैं। इस
घाट ऊपर ही
पहाड़ी की ढाल
पर ऊंकारेश्वर
का मन्दिर है।
टापू को ‘मान्धाता’
कहते हैं।
कहा जाता है
कि ईक्ष्वाकु
वंश के
प्रतापी महाराज
मांधाता ने
यहां भगवान
शंकर की आराधना
की थी। उनके
तप से प्रसन्न
होकर भगवान ने
यह स्वीकार
किया था कि वह
भक्तों के
कल्याण के लिए
सदा यहां
निवास
करेंगे।
ऊंकारेश्वर
की स्थापना
तभी से हुई
है। एक और भी
चमत्कार भरी
बात है। इस
पहाड़ी का
आकार ॐ जैसा
है।
पहाड़ी
बड़ी रमणीक
है। इस पर कई
मन्दिर और पवित्र
स्थान है।
पहाड़ी के ऊपर
विशाल मैदान
है, जहां से
आसपास दूर-दूर
तक का प्रदेश
बड़ा ही मनोरम
दिखाई देता
है। जान पड़ता
है कि यहां
पहले अच्छी
बस्ती थी,
जिसके चारों
ओर दीवार थी।
दीवार के कुछ
खंडहर और
दरवाजे के कुछ
खंडहर और
दरवाजे अभी तक
बचे हुए हैं।
अन्दर वाले दरवाजे
के पास
अष्टभुजा
देवी का तथा
दूसरे
स्थानों पर
बहुत ही विशाल
सुन्दर
मूर्तियां अब
भी खड़ी हैं।
मैदान के
पूर्ववाले
भाग में एक
बड़ा मन्दिर
था, जिसके
खंडहरों के
रुप में कुछ
खम्भे, ओटला,
गर्भगृह और छत
के कुछ हिस्से
ही अब बचे
हैं। मन्दिर
की छत लगभग
पन्द्रह फुट
ऊंची होगी और
ओटला दस फुट।
ओटले के चारों
तरफ पांच-पांच
फुट ऊंचे
सुडौल
हाथियों की
कतार खुदी हुई
है। इनको
देखकर कल्पना
हो सकती है कि
मन्दिर और यह
सारी बस्ती जब
कभी अपने
पूर्ण वैभव
में रहे
होंगे, कितने
वैभवशाली
होंगे। इस
मन्दिर से कुछ
दूरी पर दूसरी
धारा के,
जिसका नाम
कावेरी है,
उत्तर तट पर
प्रसिद्ध
जैनतीर्थ
सिद्धवर कूट
है। ॐकारेश्वर
और अमरेश्वर
का यह पुण्य
धाम जाने कितने
योगियों और
ऋषियों का
सिद्ध
क्षेत्र रहा
है। इस टापू
में और आसपास
कहीं भी चले
जाइये, किसी न
किसी
महापुरुष या
ऋषि का नाम
उसके साथ
जुड़ा हुआ
मिलेगा।
शंकराचार्य,
उनके गुरु
गोविन्द पादाचार्य
और उनके भी
गुरु गौड
पादाचार्य
यही रहे थे।
उनके बाद भी
आज तक यह
सिद्धों और
तपस्वियों का
आश्रम स्थान
रहा है।
ॐकारेश्वर
में वर्ष में
दो बार बड़े
मेले लगते हैं
कीर्तिकी
पूर्णिमा पर
और
महाशिवरात्रि
पर। कार्तिकी
पूर्णिमा का
मेला खास बड़ा
होता है।
ॐकारेश्वर
के आसपास
दोनों तीरों
पर बड़ा घना वन
है, जिसे ‘सीता का
वन’
कहते हैं।
लोगों का कहना
है कि
वाल्मीकि ऋषि का
आश्रम यहीं
कहीं था।
ॐकारेश्वर
से महेश्वर
कोई ६४ कि.मी.
है। इसके बीच
दो-तीन स्थान
उल्लेखनीय
हैं। सबसे
पहले रावेट
आता है। यहां
नर्मदा का पाट
इतना उथला है
कि आदमी पैरों
चलकर उसे पार
कर सकता है।
किसी जमाने
में फौंजें
यहीं से
नर्मदा को पार
करती थी।
पेशवाओं की
सेनाएं इधर से
ही गुजरती
थीं। परम
प्रतापी
पेशवा
बाजीराव का उत्तर
की यात्रा
करते हुए यहीं
देहांत हुआ
था। रावेट में
उनकी समाधि
है।
इसके
पड़ोस में
ससाबरड नामक
एक स्थान में
रेणुका माता
का मन्दिर है।
कहते हैं,
परशुराम ने अपने
पिता जमदग्नि
ऋषि की आज्ञा
से अपनी माता का
सिर यहीं काटा
था और फिर
पिता से वरदान
लेकर उन्हें
जिला भी दिया
था।
इसके
बाद महेश्वर
से पहले
नर्मदा के
उत्तर तट पर
एक कस्बा है
मंडलेश्वर।
अनेक
विद्धानों का
मत है कि मंडन
मिश्र का असली
स्थान यही है
और महेश्वर
प्राचीन
माहिष्मती
है।
मण्डलेश्वर
से महेश्वर
लगभग ८ कि.मी.
है। संभव है,
माहिष्मती का
फैलाव पुराने
जमाने में
यहां तक रहा
हो। भगवान
शंकराचार्य
अपनी
दिग्विजय-यात्रा
में जिस
रास्ते से
आये, उसका
वर्णन‘शांकर-दिग्विजय’
में है। यह
वर्णन
महेश्वर और
मण्डलेश्वर
की स्थिति से
और आसपास के
प्रदेश से
मिलता है।
मण्डलेश्वर
में एक पुराना
मन्दिर है,
जिसमें मण्डन
मिश्र, भारती
और
शंकराचार्य
की मूर्तियां
हैं, परन्तु
इनके नाम
दूसरे हैं।
भारती का नाम ‘सरस्वती’ है
और जिसे
शंकराचार्य
की मूर्ति
बताया जाता है,
उसे वहां ‘कार्तिकेय
स्वामी’ कहा जाता
है परन्तु ये
दोनों
कार्तिकेय
स्वामी और
सरस्वती शंकर
के मन्दिर में
कहीं नहीं
देखे गये। इससे
साफ है कि
वास्तव में यह
मण्डन मिश्र
का ही स्थान
है। मन्दिर का
वर्णन भी ‘शांकर-दिग्विजय’ के
वर्णन से
मिलता जुलता
है।
इन्दुमती
के स्वयंवर के
लिए आये हुए
अनेक राजाओं
में अनूप देश
के राजा,
माहिष्मती के
अधिपति का उल्लेख
कालिदास ने ‘रघुवंश’
में किया है।
उसमें
इन्दुमती की
सखी सुनन्दा कहती
है, अपने महल
की खिड़की में
बैठकर रेवा को
देखने का आनंद
उठाना हो “प्रासाद
जालैजैलवेणु
रम्याम रेवां
मदिप्रेक्षुतु
मस्तिकाम:” तो
अनूप देश के
इस सकल गुणों
से विभूषित
अनूप देशस्य
गुणैरनूनम
नरेश को वर
लो। महेश्वर
से यह वर्णन
पूरी तरह
मिलता है।
आधुनिक
इतिहास में भी
महेश्वर का
अपना स्थान है।
महारानी
अहिल्याबाई
होल्कर का नाम
सारे देश में
विख्यात है।
महेश्वर इनकी
राजधानी थी।
उनके समय से
लेकर अबतक यह
वस्त्र-कला का
एक सुन्दर
केन्द्र रहा
है। महेश्वर
में किला,
मन्दिर,
अहिल्याबाई
का महल, उनकी
छत्री और घाट
देखने योग्य
हैं। घाटों को
देखकर तो काशी
की याद आ जाती
है। सन १९४८
में महात्मा
गांधी की
अस्थियां
यहां नर्मदा
में विसर्जित
की गई थीं।
महेश्वर
के सामने
नर्मदा के उस
पार एक छोटा
सा गांव है,
जिसका नाम
नावड़ाटवड़ी
है। ‘वायु
पुराण’ में इसे
स्वर्ग-द्वीप
तीर्थ
कहा गया है।
यहां शलिवाहन
का मन्दिर है।
दक्षिण के शालिवाहन
या सातवाहन
राजाओं ने
मिट्रटी में
से सिपाही
पैदा करके
यवनों को
नर्मदा पार
खदेड़ दिया
था। इसलिए
नर्मदा के
दक्षीण में
शालिवाहनशक
माना जाता है।
अब तो भारत
सरकार ने इसे
सारे देश के
लिए जारी कर
दिया है।
उसमें तिथि
गणना का क्रम
कुछ बदल दिया
गया है।
महेश्वर
से पश्चिम में
सहस्रधारा
जल-प्रपात है।
यहां नर्मदा
के बीच में
चट्रटानें आ
गई हैं, जिनके
बीच से गुजरते
हुए वहां
सैकड़ों छोटी
बड़ी धाराएं
बन गई हैं।
इसका कलकल
निनाद दूर-दूर
तक सुनाई देता
है। इन
चट्रटानों के
कारण महेश्वर
के पास एक
कुंड सा बन
गया है, जहां
अथाह जल भरा
रहता है।
महेश्वर
से कोई १९
कि.मी. पर
खलघाट है।
बम्बई-आगरा
सड़क यहीं से
नर्मदा को एक
पुल पर से
होकर पार करती
है। कहते हैं,
प्राचीन काल
में ब्राहाजी
ने यहां तप
किया था। इस
स्थान को ‘कपिला
तीर्थ’ भी कहते
हैं।
कपिला
तीर्थ से १२
कि.मी. पश्चिम
में धर्मपुरी
है। “स्कंद-पुराण” और
‘वायु
पुराण’ में इसे
महर्षि दधीचि
का आश्रम
बताया गया है।
वृत्रासुर के
वध के लिए
इन्द्र ने
उनसे हडडियों
की मांग की थी
और महर्षि ने
प्रसन्नता के
साथ दे दी
थीं। उनसे वज्र
बनाकर इन्द्र
ने वृत्रासुर
को मारा था।
धर्मपुरी
के पास नर्मदा
में एक छोटा
सा टापू बन
गया है, जहां
शंकर का एक
सुन्दर
मन्दिर है। यहीं
नागेश्वर
नामक एक स्थान
है, जहां पर
मालवा के
सुलतान
बाजबहादुर की
प्रेयसी भानुमती
के गुरु रहते
थे। भानुमती
नर्मदा की बड़ी
भक्त थी और
संगीत में
बहुत ही निपुण
भी। नर्मदा के
तीर पर वह
जहां-तहां बैठ
जाती और मधुर
कण्ठ से गीत
गाती भानुमती
बहुत ही
रुपवती थी। एक
बार सुलतान के
कानों में
उसके संगीत की
ध्वनि पड़ गई।
वह उस पर
गुग्ध हो गया
और उसकी तलाश
में निकल
पड़ा।
ढूंढ़ते-ढूंढ़ते
अन्त में उसे
पता लग गया।
उसने भानुमती
से याचना की।
मालवा-निमाड़
में भानुमती
और बाजबहादुर के
प्रेम की
कहानियां अब
तक सुनी जा
सकती हैं। अंत
में भानुमती
ने बाजबहादुर
के प्रेम को
स्वीकार कर
लिया, परन्तु
एक शर्त के
साथ। वह
नर्मदा को
छोड़कर कहीं
नहीं जायगी,
नर्मदा का ही
जल पीयेगी और
रोज
नर्मदा
का दर्शन
करेगी। कहते
हैं, किसी
महात्मा के
प्रताप से
माण्डव में
नर्मदा एकाएक
प्रकट हो गई।
वहां एक कुण्ड
बनवा दिया
गया, जिसे रेवा-कुण्ड
कहते हैं, और
उसी के पास
भानुमती का महल
भी बनवा दिया
गया, जहां से
प्रतिदिन वह
नर्मदा की
धारा का दर्शन
किया करती थी।
नर्मदा की
परिक्रमा करनेवाले
धर्मपुरी से
रेवा-कुण्ड तक
जाते हैं और
फिर लौटकर
प्रवाह के साथ
हो जाते हैं।
माण्डव
के किले में
अनेक दर्शनीय
स्थान हैं। पुराने
जमाने में इसे
मण्डप दुर्ग
कहते थे। यह
बड़ा नगर था।
कहते हैं, कोई
सात सौ तो जैन
मन्दिर ही थे।
विद्या का
केन्द्र था। मुसलमान
सुलतानों के
काल में भी
उसकी बड़ी शान
थी। भगवान
रामचन्द्र
का एक प्राचीन
मन्दिर है,
जिसमें श्रीराम
की मूर्ति
बहुत सुन्दर
है।
धर्मपुरी के बाद कुश ऋषि की तपोभूति शुक्लेश्वर, देवों की माता अदिति की तपस्या द्वारा पुन्नत ऋद्धेश्वर और सूर्य-वंश के राजा ब्रहादत्ता की यज्ञ-भूमि ऊकलवाडा होते हुए हम चिरवलदा पहुंचते हैं। यहां महर्षियों (विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्री वसिष्ठ, कश्यप) ने तप किया था। आज के युग में भी यतिवर वासुदेवानन्द सरस्वती की तपश्चर्या का यह साक्षी रहा है। सामने दक्षीण तट पर राजघाट है, जहां सन १९४८ में महात्मा गांधी की अस्थियां विसजिर्तत की गई थीं। यहां पर फरवरी में हर साल सर्वोदय-मेला लगता है। यहां से ५ कि.मी. पर दक्षीण में बड़वानी नामक एक सुन्दर कस्बा है, जो स्वराज्य के पहले इसी नाम के एक छोटे से राज्य की राजधानी थी।
बड़वानी
के पास
सतपुड़ा की
पहाड़ियों
में एक जैन
तीर्थ है,
जिसे ‘वावन
गजाजी’ कहते
हैं। एक
पहाड़ी की बगल
में संपूर्ण
चट्रटान में
खुदी यह एक
विशाल खड़ी
मूर्ति कोई ८४
फुट ऊंची है।
इसी पहाड़ी के
ऊपर एक मन्दिर
भी है, जिसकी
जैनियों और हिंदुओं
में समान रुप
से मान्यता
है। हिन्दू लोग
इसे ‘दत्तात्रेय
की पादुका’
कहते हैं। जैन
इसे ‘मेघनाद
और कुंभकर्ण
की तपोभूमि’ मानते
हैं। इधर के
शिखरों में यह
सतपुड़ा का शायद
सबसे ऊंचा
शिखर है और जब
आसमान साफ
होता है तो
माण्डव यहां
से दिखाई देता
है।
सतपुड़ा
का यह भाग
गोवर्धन
क्षेत्र भी
माना जाता है।
यह निमाड़ी
गोवंश का घर
है। यहां के गाय
और बैल खेती
के काम के
विचार से बहुत
अच्छे माने
जाते हैं।
बड़े बलिष्ठ
और पानीदार।
यों तो
होशंगाबाद से
लेकर हिरनफाल
तक निमाड़ में
अच्छे बैल
होते हैं,
परन्तु यह भाग
विशेष रुप से प्रसिद्ध
है। गायों की
वह नस्ल दूध
देने में इतनी
अच्छी नहीं
है।
बीजारान में विंध्यवासिनी देवी ने, धर्मराज तीर्थ में धर्मराज ने और हिरनफाल में हिरण्याक्ष ने तप किया था। यहां पर नर्मदा का पाट बहुत ही संकरा है।
कुछ
किलोमीटर
पश्चिम में
बढ़ने पर
हापेश्वर की शोभा
देखते बनती
है। पहाड़ी पर
शंकर का एक
भव्य और
सुन्दर
मन्दिर है,
जहां से आसपास
का दृश्य बड़ा
ही
मनोहारी
लगता है। यहां
पर वरुण ने
भगवान शंकर को
प्रसन्न करने
के लिए तप
किया था। इस
सारे प्रदेश
में बड़े-बड़े
और दुर्गम वन
हैं।
हापेश्वर
के बाद
उल्लेखनीय
तीर्थ है-
शूलपाणी।
सिंदुरी संगम
से घने जंगली
और पहाड़ों के
बीच से होकर
दस-बारह मील
चलने पर
नर्मदा के दक्षीण
तट पर शूलपाणी
तीर्थ मिलता
है। यहां शूलपाणी
का बहुत
प्राचीन
मन्दिर है।
कमलेश्वर, राजराजेश्वर
आदि और भी कई
मन्दिर हैं।
यहीं पास में
ब्रहादेव
द्वारा स्थापित
ब्रहोश्वर
लिंग भी बताया
जाता है। इसके
दक्षीण में
शेषशायी
भगवान का
मन्दिर है।
दीर्घपता ऋषि
का कुलसहित
यहीं उद्धार हुआ
बताते हैं।
काशिराज
चित्रसेन को
भी यहीं सिद्धि
मिली थी।
गरुड़ेश्वर
में भगवान
दत्तात्रेय
के मन्दिर और
यतिवर
वासुदेवानंद
सरस्वती की समाधि
है।
शुक्रतीर्थ,
अकतेश्व,
कर्नाली,
चांदोद, शुकेश्वर,
व्यासतीर्थ
होते हुए हम
अनसूयामाई
पहुंचते हैं,
जहां अत्री –ऋषि
की आज्ञा से
देवी श्री
अनसूयाजी ने
पुत्र प्राप्ति
के लिए तप
किया था और
उससे प्रसन्न
होकर ब्रहा, विष्णु,
महेश
तीनों
देवताओं ने
यहीं
दत्तात्रेय
के रुप में
उनका पुत्र
होना स्वीकार
कर जन्म ग्रहण
किया था।
कंजेठा में
शकुन्तला-पुत्र
महाराज भरत ने
अनेक यज्ञ
किये। सीनोर
में ऐतिहासिक
और धार्मिक
दृष्टि से
अनेक पवित्र
स्थान हैं।
सीनोर
के बाद भड़ोंच
तक कई छोटे-बड़े
गांव, तीर्थ
और तपश्चर्या
के स्थान हैं।
अंगारेश्वर
में मंगल ने
तप करके
अंगारेश्वर
की स्थापना की
थी। निकोरा
में पृथ्वी का
उद्धार करने
के बाद वराह
भगवान ने इस
तीर्थ की
स्थापना की।
लाडवां में
कुसुमेश्वर
तीर्थ है।
मंगलेश्वर
में कश्यप कुल
में पैदा हुए
भार्गव ऋषि ने
तप किया था।
शुक्रतीर्थ
में नर्मदा के
बीच टापू में
एक विशाल बरगद
का पेड़ है।
शायद यह संसार
में सबसे बड़ा
वट-वृक्ष है।
यहां महात्मा
कबीर ने कुछ
समय तक निवास
किया था।
इसलिए इसे ‘कबीर-वट’
कहते हैं।
इसके नीचे
हजारों आदमी
विश्राम कर सकते
हैं।
·
·
इसके
बाद कुछ मील
चलकर हम
भड़ोंच
पहुंचते हैं,
जहां नर्मदा
समुद्र में
मिल जाती है।
पश्चिम रेलवे
का यह एक
प्रमुख
स्टेशन है।
नगर की लम्बाई
कोई ५ कि.मी. और
चौड़ाई डेढ़
कि.मी. है।
यहां पहले एक
किला भी था,
जिसे
सिद्धराज
जयसिंह ने
बनवाया
था। अब तो उसके
खण्डहर हैं।
भड़ोंच को ‘भृगु-कच्छ’
अथवा ‘भृगु-तीर्थ’ भी
कहते हैं।
यहां भृगु ऋषि
का निवास था।
यहीं राजा बलि
ने दस
अश्वमेध-यज्ञ
किये
थे।
सोमनाथ का
मन्दिर भी इसी
स्थान पर है।
भड़ोंच नगर की
पंचकोशी में
कोई पचास से
ऊपर पवित्र
स्थान बताये
जाते हैं।
भड़ोंच
के सामने के
तीर पर समुद्र
के निकट
विमलेश्वर नामक
स्थान है।
परिक्रमा
करनेवाले
यहां से नाव
में बैठकर
समुद्र
द्वारा
नर्मदा के
उत्तर तट पर
लोहारिया
गांव के पास
उतरते हैं। यह
फासला १९
कि.मी. का है।
भारत
की नदियों में
नर्मदा का
अपना महत्व
है। न जाने
जितनी भूमि को
उसने हरा-भरा
बनाया है, और
उसके किनारे
पर बने तीर्थ
न जाने कब से
अनगिनत
नर-नारियों को
प्ररेणा देते
रहे हैं, आगे
भी देते
रहेंगे।
कावेरी
कावेरी
कर्नाटक की
पूर्व कुर्ग
रियासत से निकलती
है। यह पूर्व
मैसूर राज्य
को सींचती हुई
दक्षीण पूर्व
की ओर
बहती है और
तमिलनाडु के
एक विशाल
प्रदेश को
हरा-भरा बनाकर
बंगाल की
खाड़ी में
गिरती है।
कुर्ग की पहाड़ियों
से लेकर
समुद्र तक
कावेरी की
लंबाई ७७२
कि.मी. है। इस
लम्बी यात्रा
में कावेरी का
रुप सैकड़ो
बार बदलता है।
कहीं वह पतली
धार की तरह दो
ऊंची
चट्रटानों के
बीच बहती है,
जहां एक छलांग
में उसे पार
कर सकते है
कहीं उसकी
चौड़ाई डेढ़
कि.मी. के करीब
होती है ओर वह
सागर सी दिखाई
देती है कहीं
वह साढ़े तीन
सौ फुट की
ऊंचाई से जल
प्रपात के रुप
में गिरती है,
जहां उसका
भीषण रुप
देखकर और
चीत्कार
सुनकर रोंगटे
खड़े हो जाते
है, कहीं वह इतनी
सरल और प्यारी
होती है कि उस
पर बांस की लकड़ी
का पुल बनाकर
लोग उसे पार
कर जाते हैं।
पचास
के करीब
छोटी-बड़ी
नदियां
कावेरी में आकर
गिरती हैं।
समुद्र में
मिलने से पहले
उसी से कई
शाखाएं
निकलकर
अलग-अलग नामों
से अलग-अलग नदियों
के रुप में
बहती हैं।
कावेरी
पर प्राचीन
काल से लेकर
अबतक सैकड़ों
स्थानों पर
बांध बने हैं।
उसकी नहरों से
विंचनेवाली
भूमि का
विस्तार लगभग
डेढ़ करोड़
हेक्टेयर होगा।
और भी लाखों
एकड़ भूमि की
सिंचाई उसके
जल से हो सकती
है, यह अनुमान
लगाया गया है।
निकलने के
स्थान से लेकर
समुद्र में
गिरने के स्थान
तक कावेरी के
तट पर दर्जनों
बड़े-बड़े नगर
और उपनगर बसे
हैं। बीसियों
तीर्थ-स्थान
हैं। अनगिनत
प्राचीन
मन्दिर हैं और
आज तो सैकड़ो
कल-कारखाने भी
उसके तट पर चल
रहे हैं।
जहां कावेरी समुद्र से मिलती है, वह स्थान प्राचीन काल में बहुत बड़ा बंदरगाह था। दूर-दूर के देशों से जहाज आया-जाया करते थे। पहार नामक वह नगरी एक बड़े साम्राज्य की राजधानी थी, पर आज तो वहां पर काविरिपूम्पटिनम नामक एक छोटा सा गांव रह गया है। समुद्र के उमड़ आने से प्राचीन नगर डूब गया। कहा जाता है, अभी भी वहां खोज करने से बहुत से प्राचीन भवनों और मन्दिरों का पता लगाया जा सकता है।
कावेरी
के पवित्र जल
ने कितने ही
संतों, कवियों,
राजाओं,
दानियों और
प्रतापी
वीरों को जन्म
दिया है। इसी
कारण कावेरी
को ‘तामिल-भाषियों
की माता’ कहा जाता
है।
तमिल
भाषा में
कावेरी को ‘काविरि’ भी
कहते हैं।
काविरि का
अर्थ है- उपवनों
का विस्तार
करनेवाली।
अपने जल से
ऊसर भूमि को
भी वह उपजाऊ बना
देती है। इस
कारण उसे ‘काविरि’
कहते हैं।
कावेरी का एक
अर्थ है-कावेर
की पुत्री।
राजा कवेर ने
उसे पुत्री
की तरह
पाला था, इस
कारण उसका यह
नाम पड़ा।
कावेरी
को ‘सहा-आमलक-तीर्थ’ और
‘शंख-तीर्थ’ भी
कहते हैं।
ब्रहा ने शंख
के कमंडल से
आंवले के पेउ़
की जड़ में
विरजा नदी का
जो जल चढ़ाया
था, उसके साथ
मिलकर बहने के
कारण कावेरी
के ये नाम
पड़े।
तमिल
भाषा में
कावेरी को
प्यार से ‘पोन्नी’
कहते हैं।
पोन्नी का
अर्थ है सोना
उगानेवाली।
कहा जाता है
कि कावेरी के
जल में सोने
की धूल मिली
हुई है। इस
कारण इसका यह
नाम पड़ा। एक
और जानने
योग्य बात यह
है कि कावेरी
में मिलने
वाली कई
उपनदियों में
से दो के नाम
कनका और
हेमावती हैं।
इन दोनों
नामों में भी
सोने का संकेत
है। दक्षीण
भारत में दो
लम्बे
पर्वतमालाएं
हैं। एक
पश्चिम में और
दूसरी पूरब
में। पश्चिम
की पर्वतमाला
को पश्चिमी
घाट और पूरब
की पर्वतमाला
को पूर्वी घाट
कहते हैं।
इनमें
पश्चिमी घाट
के उत्तरी भाग
में एक सुन्दर
राज्य है,
जिसे कुर्ग
कहते हैं।
राज्य में एक
पहाड़ का नाम
सहा-पर्वत है।
इस पहाड़ को ‘ब्रहाकपाल’ भी
कहते हैं।
इस
पहाड़ के एक
कोने में एक
छोटा सा तालाब
बना है। तालाब
में पानी केवल
ढाई फुट गहरा
है। इस चौकोर
तालाब का घेरा
एक सौ बीस फुट
का है। तालाब के
पश्चिमी तट पर
एक छोटा सा
मन्दिर है।
मन्दिर के
भीतर एक तरुणी
की सुन्दर
मूर्ति
स्थापित है।
मूर्ति के
सामने एक दीप
लगातार जलता
रहता है।
यही
तालाब कावेरी
नदी का
उदगम-स्थान
है। पहाड़ के
भीतर से फूट
निकलनेवाली
यह सरिता पहले
उस तालाब में
गिरती है, फिर
एक छोटे से
झरने के रुप
में बाहर
निकलती है।
देवी कावेरी
की मूर्ति की
यहां पर नित्य
पूजा होती है।
कावेरी का स्रोत
कभी नहीं
सूखता।
कावेरी
कुर्ग से
निकलती अवश्य
है, पर वहां की जनता
को कोई लाभ
नहीं
पहुंचाती।
कुर्ग के घने जंगलों
में पानी काफी
बरसता है, इस
कारण वहां कावेरी
का कोई काम भी
नहीं है,
उल्टे कावेरी
कुर्ग की दो
और नदियों को
भी अपने साथ
मिला लेती है
और पहाड़ी
पट्रटानों के
बीच में सांप
की तरह
टेढ़ी-मेढ़ी
चाल चलती,
रास्ता बनाती,
मॅसूर राज्य
की ओर बढ़ती
है।
कनका
से मिलने से
पहले कावेरी
की धारा इतनी
पतली होती है
कि उसे नदी के
रुप में
पहचानना भी कठिन
होता है। कनका
से मिलने के
बाद उसे नदी
का रुप और गति
प्राप्त होती
है। सहा’पर्वत से
बहनेवाले
सैकड़ों
छोटे-छोटे
सोते भी यहां
पर उसमे आकर
मिल जाते हैं।
इस स्थान को ‘भागमंडलम’
कहते हैं।
हेमावती नदी
कर्नाटक
राज्य के तिप्पूर
नामक स्थान पर
कावेरी से आकर
मिलती है।
कावेरी
के उदगम-स्थान
पर हर साल
सावन के महीने
में बड़ा भारी
उत्सव मनाया
जाता है। यह है
कावेरी की
विदाई का
उत्सव। कुर्ग
के सभी हिन्दू
लोग, विशेषकर
स्त्रियां, इस
उत्सव में बड़ी
श्रद्धा के साथ
भाग लेती हैं।
उस दिन कावेरी
की मूर्ति की
विशेष पूजा
होती है। ‘तलैकावेरी’
कहलानेवाले
उदगम-स्थान पर
सब स्नान करते
हैं। स्नान
करने के बाद
प्रत्येक
स्त्री कोई न
कोई गहना,
उपहार के रुप
में, उस तालाब
में डालती है।
यह दृश्य ठीक
वैसा ही होता
है, जैसा कि नई
विवाहित
लड़की की
विदाई का
दृश्य।
इस
संबंध में एक
रोचक कहानी
कही जाती है।
सहा-पर्वत ने
अपनी लजीली
बेटी कावेरी
को उसके पति समुद्रराज
के पास भेजा।
जब बेटी घर से
विदा होकर चली
गई तब
सहा-पर्वत को
भय हुआ कि कहीं
ससुरालवाले
मेरी बेटी को
गरीब न समझ
लें। इसलिए
उसने कनका नाम
की युवती को
कई उपहारों के
साथ दौड़ाया
और कहा कि तुम
जल्दी जाकर
कावेरी के साथ
हो लो।
कनका
चली गई और ‘भागमंडलम’
नामक स्थान पर
कावेरी से
मिली। उपहार
का शेष भाग
यहीं पर
कावेरी को
मिला, इस कारण
इस स्थान का
नाम ‘भागमंडलम’
पड़ा। परन्तु
पिता
सहा-पर्वत का
भय अब भी दूर नहीं
हुआ। उसे लगा
कि मैंने
पुत्री को
उतने उपहार
नहीं दिये,
जितने कि मैं
दे सकता था।
उसने हेमावती
नाम की दूसरी
लड़की को
बुलाया और बहुत
से उपहार देकर
कहा कि तुम
किसी ओर
रास्ते से
तेजी से
जाओ।
हेमावती
स्वयं अपनी
सहेली के चली
जाने पर दुखी
थी। इसलिए
सहा-पर्वत की
आज्ञा से वह
बहुत प्रसन्न
हुई और आंख
मूंद कर भागी।
उधर
कावेरी कनका
से मिलने के
बाद बहुत
प्रसन्न हुई
ओर विदाई का
दु:ख भूल गई। ‘भागमंडलम’ से
‘चित्र’
नामक स्थान तक
दोनों
सहेलियां
ऊंची-ऊंची चट्रटानों
के बीच में
हंसती-खेलती,
किलोलें करती हुई
चलीं, परन्तु “चित्रपुरम’
पहुंचने के
बाद उनके कदम
आगे नहीं
बढ़े, क्योंकि
वे कुर्ग की
सीमा पर पहुंच
गई थीं। आगे
मैसूर राज्य आ
गया था। उसमें
प्रवेश करने
का मतलब नैहर
से सदा के लिए
बिछुड़ना था।
इस कारण वे असमंजस
में पड़ गई और
३२ कि.मी. तक
कुर्ग और मैसूर
की सीमा से
साथ-साथ बहीं।
चित्रपुरम से ‘कण्णेकाल’ के
आगे कावेरी
भारी मन से
अपने पिता के
घर से सदा के
लिए बिछुड़
गई। बिछोह का
दु:ख उसे इतना
था कि वह
मैसूर के हासन
जिले में
पहाड़ी
चट्रटानों के
बीच में मुंह
छिपाकर रोती
हुई चली।
तिप्पूर नामक
स्थान पर वह उत्तर
की ओर मुड़ी,
मानो पिता के
घर लौट आयगी,
परन्तु देखती
क्या है कि
उसकी सहेली
हेमावती उत्तर
से बड़े वेग
से चली आ रही
है। उसी स्थान
पर दोनों
सहेलियां गले
मिलीं।
हेमावती
ने अपने को और
सहा-पर्वत के
भेजे हुए सब
उपहारों को
सखी कावेरी के
चरणों में
न्योछावर कर
दिया। इससे
प्रसन्न होकर
कावेरी ने घर
लौटने का विचार
छोड़ दिया और
दक्षीण-पूरब
की ओर बहने लगी।
कुर्ग
से तिप्पूर तक
कावेरी नदी के
बहाव की भिन्न-भिन्न
चालें देखकर
यह मनोरंजक
कहानी गढ़ी गई
मालूम होती
है।
कर्नाटक
में
लक्ष्मणतीर्थ
नाम की एक और
छोटी नदी
दक्षीण से आकर
कावेरी से
मिलती है।
कावेरी,
हेमावती और
लक्ष्मणतीर्थ-ये
तीनों नदियां जरा
आगे-पीछे
एक-दूसरी से
मिलती हैं और
प्रचंड से
मैसूर राज्य
की राजधानी की
ओर बहती हैं।
राज्य
में कावेरी पर
पन्द्रह बांध
बनाये गए हैं,
जिनसे लाखों
हेक्टेयर
भूमि की
सिंचाई होती
है। इसके
अलावा कावेरी
के जल से वहां
बहुत बड़ी
मात्रा में
बिजली भी पैदा
की जाती है,
जिससे कर्नाटक
के
उद्योग-धंधे
चलते हैं।
मैसूर राज्य
में सिंचाई के
लिए कावेरी पर
बने हुए बांधों
में सबसे बड़ा
कण्णम्बाड़ी
का बांध है।
इस बांध के
कारण जो विशाल
जलाशय बना है,
उसी को ‘कृष्णराज
सागरम’ कहते
हैं। यह पूर्व
मैसूर राज्य
की राजधानी मैसूर
नगर से थोड़ी
ही दूरी पर
बना है। इसी
जलाशय के पास
वृन्दावन नाम
का एक विशाल
उपवन भी है।
इस उपवन की
सुन्दरता और
रात के
समय
वहां
जगमगानेवाली
रंग-बिरंगी
बिजली की बत्तियां
आदि को देखकर
भ्रम होता है
कि हम कहीं
इन्द्रपुरी
में तो नहीं आ
गये हैं। इस
सारे सौंदर्य
और जगमगाहट का
आधार कावेरी
का पवित्र जल
ही है।
कावेरी
की नजरों से
इस समय पूर्व
मैसूर राज्य में
सवा लाख हेक्टेयर
भूमि में
धान और
दूसरे अनाज
पैदा होते हैं
और ४० हजार हेक्टेयर
भूमि में
गन्ने की खेती
की जाती है। इसके
अलावा हजारों
हेक्टेयर
भूमि में
तरह-तरह के फल
और
साग-सब्जियां
पैदा की जाती
हैं।
इस
तरह राज्य की
जनता को अन्न
देनेवाली
कावेरी उनके
उद्योगधंधों
के लिए बिजली
पैदा करके
उनकी शक्ति और
धन को भी बढ़ा रही
है। पिछले
वर्षो में
कर्नाटक में
सैकड़ों नये
कल-कारखाने
खुले हैं।,
जिनसे लाखों
लोगों को
रोजगार मिला
है। ये सब
कारखाने
कावेरी नदी के
प्रवाह से
पैदा की
जानेवाली
बिजली से ही चलते
हैं।
कर्नाटक
में इस तरह
पन-बिजली पैदा
करने के जो
बिजलीघर बने
हुए हैं,
उनमें सबसे
बड़ा
शिवसमुद्रम
के जल-प्रपात
के पास बना है।
शिवसमुद्रम
प्राचीन
स्थान है। यह
मैसूर नगर से
करीब ५६ कि.मी.
उत्तर-पूरब
में कावेरी के
दोआब में बसा
है। यहां पर
कावेरी का जल,
पहाड़ की बनावट
के कारण,
विशाल झील की
तरह दिखाई
देता है। इसी
झील से थोड़ी
दूर आगे माता
कावेरी तीन सौ
अस्सी फुट की
ऊंचाई से जल-प्रपात
के रुप में
गिरती है।
शिवसमुद्रम
की इसी
स्वाभाविक
झील से नहरों
द्वारा
कावेरी का जल
3कि.मी. दूर तक
ले जाया गया है।
जहां बिजलीघर
बना है, वह
स्थान
शिवसमुद्रम के
जलाशय से करीब
छ: सौ फुट नीचे
है। तेरह
बड़े-बड़े नलों
से
शिवसमुद्रम
का पानी
बिजलीघर तक ले
जाया जाता है।
बिजलीघर के
पास ये नल चार
सौ फुट तक सीधे
उतरते हैं। इस
कारण इनमें से
बहने वाले पानी
का वेग बहुत
ही प्रचंड
होता है।
बिजलीघर में
रहट की तरह के
जो फौलादी
पहिये बने हुए
हैं, उन पर
पानी का दबाव
पड़ने पर से
बड़े वेग से
घूमते हैं।
इन
बड़े-बड़े
पहियों के
घूमने से बड़ी
मात्रा में
बिजली पैदा
होती है। इस
बिजली को सारे
कर्नाटक में
तारों द्वारा
बांटा जाता
है। अनेक नगरों
को प्रकाश और
सैकड़ों
कारखानों को
बिजली इस
शक्ति से मिलती
है।
इस तरह कर्नाटक को हराभरा बनाकर उसके उद्योगों के लिए बिजली पैदा कर देने के बाद कावेरी तमिलभाषी तमिलनाडु की ओर बहती है। इस बीच कई छोटी-बड़ी
नदियां उसमें आकर मिलती हैं। कर्नाटक की सीमा के अन्दर कावेरी से मिलनेवाली अंतिम दो नदियां शिम्शा और अर्कावती हैं।
कर्नाटक
से विदा होकर
कावेरी शेलम
और कोयम्बुत्तूर
जिलों की सीमा
पर
तमिलनाडु में
प्रवेश करती
है। यहां पर
भी कई
उपनदियां
उसमें आकर
मिलती हैं।
इसी
सीमाप्रदेश
में ‘होगेनगल’
नाम का
विख्यात
जल-प्रपात है।
यहां पर
कावेरी
इतने प्रचंड
वेग से चट्रटानों
पर गिरती है
कि उससे
छितरानेवाले
छींटे धुएं की
तरह आकाश में
फैल जाते हैं।
धुंए का यह
बादल कई मील
दूर तक दिखाई
देता है। इसी
कारण कन्नड़
भाषा में इस
जल-प्रपात को
होगेनगल कहा
जाता है,
जिसका अर्थ
है- धुएं का
प्रपात।
होगेनगल
जल-प्रपात के
पास एक गहरा
जलाशय
स्वाभाविक
रुप से बना
है।
इसको ‘यागकुंडम’
यानी ‘यज्ञ
की वेदी’ कहते
हैं।
यहां
तक कावेरी
पहाड़ी
इलाकों में
बहती रही। अब
वह समतल मैदान
मं बहने लगती
है। शेलम और
कोयम्बुत्तूर
जिलों की सीमा
पर वह दो
पहाड़ों के
बीच में बहती
है। सीता
पर्वत और
पालमलै कहलाने
वाले इन्हीं
दो पहाड़ों के
बीच एक विशाल
बांध बना है,
जो ‘मेटटूर
बांध’ के
नाम से
प्रसिद्ध है।
तमिलनाडु
में कावेरी पर
कितने ही
छोटे-बड़े, नये-पुराने
बांध बने हैं,
परन्तु उनमें
मेटटूर का
बांध सबसे
बड़ा है।
कर्नाटक के
कृष्णराज
सागरम से भी
मेटटूर का
बांध अधिक विशाल
है। बांध के
बीच में
बिजलीघर है।
इससे पैदा की
जानेवाली
बिजली से
दूर-दूर तक के
शहर और गांव
लाभ उठाते
हैं। मेटटूर
के जलाशय से
११६१ कि.मी.
लंबी छोटी
बड़ी नहरें
तिरुचि और
तंजाऊर जिलों
के खेतों को
सींचती हैं।
दस लाख हेक्टेयर
से अधिक भूमि
की सिंचाई इन
नहरो से होती
है।
कुछ लोग समझते हैं कि बांध बनाने की कला हमारे पुरखों को नहीं आती थी। विदेशियों से ही हमने यह कला सीखी, परन्तु यह धारणा गलत है। आज से लगभग दो हजार साल पहले कावेरी-प्रदेश में करिकालन नाम का प्रतापी राजा राज करता था। उसका राज्य चोल-राज्य के नाम से प्रसिद्ध था। पुहार नामक नगरी, जो उन दिनों कावेरी के समुद्र-संगम के स्थान पर बसी थी, इस राज्य की राजधानी थी। करिकालन के समय में कावेरी का तट स्थान-स्थान पर शिथिल हो गया था। इस कारण बाढ़ आने पर नदी के किनारे पर के खेत उजड़ जाते थे और बस्तियों में भी तबाही मच जाती थी। इस विपदा को रोकने और कावेरी के जल से खेतों की सिंचाई बढ़ाने के विचार से राजा करिकालन ने एक विशाल योजना बनाई उसने निश्चय किया कि श्रीरंगम से लेकर पुहार तक कावेरी नदी के किनारों को खूब ऊंचा किया जाय। श्रीरंगम से लेकर पुहार तक कावेरी नदी के किनारों को खूब ऊंचा किया जाय। श्रीरंगम से पुहार तक कावेरी नदी की लंबाई एक सौ मी से अधिक है। आजकल, जब हर तरह के यंत्र काम में लाये जाते हैं, इतनी दूर तक एक बड़ी नदी के दोनों किनारों को ऊंचा करने का काम बहुत कसाले का है। दो हजार साल पहले, जब किसी प्रकार के यंत्र नहीं थे, इतनी विशाल योजना को पूरा करना बड़ा कठिन काम रहा होगा। राजा करिकालन ने इस योजना को पूरा करके छोड़ा। इसके लिए उसने प्रजाजनों, सैनिकों और सिंहल (श्रीलंका) से लाये गए बारह हजार युद्ध बंदियों से काम लिया। जब काम पूरा हुआ तब से युद्ध-बंदी छोड़ दिये गए।
करिकालन
ने किनारों को
ऊंचा करके ही
संतोष नहीं कर
लिया। उसने कई
नहरें खुदवाई
और छोटे-बड़े
कई बांध
बनवाये।
नतीजा यह हुआ
कि करिकालन के
समय में
चोल-राज्य
धन-धान्य से
भरपूर रहा।
वहां का
वाणिज्य
बढ़ा।
श्रीरंगम
के पास कावेरी
नदी और उसकी
शाखा कोल्लिडम
नदी साथ-साथ
बहती हैं। इन
दोनों को
उल्लारु नाम
की नहर मिलाती
हैं, परन्तु
यहां कावेरी
की सतह
कोल्लिडम से
ऊंची है। इससे
कावेरी का
सारा जल
कोल्लिडम में बह
जाता था और
बेकार हो जाता
था।आज से करीब
सोलह सौ साल
पहले चोल
राज्य के एक
राजा ने इस ओर
ध्यान दिया।
उसने उल्लारु
के बीच एक
विशाल बांध
बनवाकर
कावेरी के जल
को कोल्लिडम
नदी में बहने
से रोका।
कल्लणै
कहलानेवाला यह
प्राचीन बांध
केवल पत्थरों
और मिट्रटी से
बना है,
परन्तु न जाने
इस मिटटी में
क्या चीज मिलाई
गई थी कि आज तक
करीब ११ सौ
फुट लंबा यह
बांध ज्यों का
त्यों खड़ा है
और कावेरी के
प्रवाह को
बेकार जाने से
रोक रहा है।
इस बांध को
देखकर
बड़े-बड़े
विदेशी
इंजीनियर भी
अचंभे में आ
जाते हैं। सन
१८४० में इस
प्राचीन बांध
में कुछ सुधार
किया गया,
जिससे पानी को
आवश्यकता के
अनुसार रोका
या छोड़ा जा
सके।
इस प्रकार कर्नाटक और तमिलनाडु की सुख-समृद्धि को बढ़ानेवाली माता कावेरी ने सैकड़ो साम्राज्यों को बनते-बिगड़ते देखा है। कर्णाटक में गंगा और होयसल इसी नदी के बल पर पनपे और फूले-फले थे। उनकी राजधानी श्रीरंगपट्रणम कावेरी के तट पर ही बसी थी। १५वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना और विस्तार इस नदी ने देखा। बाद में मरहठों और मुसलमानों के कई हमले देखे। सन १७५७ में हैदरअली नाम के एक सिपाही ने मरहठों को रुपये देकर मैसूर राज्य की राजधानी श्रीरंगपट्रणम पर कब्जा कर लिया था। बाद में उसके बेटे टीपू सुल्तान ने दिल्ली पर चढ़ाई करने के विचार से कावेरी पर पत्थर का एक पुल बनवाया। वह पुल आज भी मौजूद है। टीपू दिल्ली पर तो चढ़ाई नहीं कर सका, पर उसने अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़कर उनके छक्के छुड़ा दिये थे। अन्त में, इसी कावेरी के तट पर टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की थी।
तमिलभाषी
प्रदेश में तो
कावेरी ने ऐसे
प्रातापी वीर
और संत देखे
हैं,
जिन्होंने
देश का मस्तक
ऊंचा किया था।
इसी कावेरी के
तट पर चोल
साम्राज्य
बना और फैला।
चोल-राजा
करिकालन ने
हिमालय पर
अभियान किया
ओर उसके शिखर
पर बाघ का चिह
लगा हुआ अपन
झंडा अंकित कर
आया। करिकालन
के समय
समुद्रतट पर
कावेरी के
संगम-स्थल पर
पुहार नामक
विशाल
बंदरगाह बना।
वहां से रोम,
यूनान, चीन और
अरब को
तिजारती जहाज
जाते-आते थे।
तमिल के
प्राचीन
ग्रन्थों में
पुहार नगर का
वर्णन
पढ़कर गर्व से
माथा ऊंचा हो
जाता है। यूनान
के इतिहास में
भी इस नगर का
वर्णन मिलता
है। यूनानाी
लोग इस नगर को ‘कबेरस’
कहते थे।
कबेरस कावेरी
शब्द से बना
है।
ईसा की
नवीं सदी में
राजराजन नाम
का एक प्रतापी
राजा इसी
कावेरी के
प्रदेश में
हुआ। उसने श्री
लंका पर विजय
पाई और बर्मा,
मलाया, जावा
और सुमात्रा
को भी अपने
अधीन कर लिया।
इन देशों में
राजराजन के
समय में बने
कितने ही
मन्दिर आजतक
विद्यमान
हैं। राजराजन
के पास एक
विशाल नौसेना
थी। तंजावूर
में राजराजन
ने शिवजी का
जो सुन्दर
मन्दिर
बनवाया था,
उसकी
शिल्पकला को
देखकर विदेशी
भी दांतों तले
उंगली दबाते
हैं। इस राजराजन
की एक उपाधि
है’
पोन्निविन
शेलवन’ जिसका
अर्थ है ‘सुनहरी
कावेरी का
लाडला बेटा।’
राजराजन
के बाद माता
कावेरी ने
अपने ही बेटों
को एक-दूसरे
से लड़ते
देखकर आंसू
बहाये। कावेरी
के पुनीत जल
में भाइयों का
खून बहाया।
फिर
मुसलमान आये।
उनके बाद
आंध्र और
मरहठे आये।
आंध्रों और
महाराष्ट्र
के पेश्वाओं
ने कावेरी के
जले ह्रदय को
अपने सुशासन से
शांत किया।
पेशवाओं के
राज्काल में
दक्षीण के
मन्दिरों का
जीर्णोद्वार
हुआ, नये-नये
विद्यालय
बने और
पुस्तकालय
भी।
कावेरी
के तट पर
तिरुवैयारु
नामक स्थान पर
पेशवाओं ने जो
संस्कृत
विद्यालय
स्थापित किया था,
वह आजतक उनका
यश गा रहा है।
राजधानी
तंजावूर में पेशवाओं
ने सरस्वती
महल के नाम से
एक विशाल पुस्तकालय
बनाया था।
कावेरी
के पुण्य-जल
ने धर्म-वृक्ष
को भी सींचा,
और आज भी सींच
रहा है।
कावेरी के तीन
दोआबों में
भगवान विष्णु
के तीन
प्रसिद्ध
मन्दिर बने हैं।
तीनों में अनंतनाग
पर शयन करने
वाले भगवान
विष्णु की मूर्ति
बनी है, इस
कारण इनको
श्रीरंगम कहा
जाता है।
इनमें
कर्नाटक की
प्राचीन
राजधानी
श्रीरंगपट्रणम
‘आदिरंगम’
कहलाता है।
शिवसमुद्रम
के दोआब पर
मध्यरंगम नाम
का दूसरा
मन्दिर है और
तमिलनाडु के
तिरुचिरापल्ली
नामक नगर के
पास तीसरा
मन्दिर है।
यही
तीसरा मंदिर
श्रीरंगम के
नाम से
विख्यात है,
और इसी को
वैष्णव लोग
सबसे अधिक
महत्व का
मानते हैं।
इसी
प्रकार
कावेरी के तट
पर शैव धर्म
के भी कितने
ही तीर्थ हैं।
चिदम्बरम का
मन्दिर कावेरी
की ही देन है।
श्रीरंगम के
पास बना हुआ
जंबुकेश्वरम
का प्राचीन
मन्दिर भी
बहुत
प्रसिद्ध है।
तिरुवैयारु,
कुंभकोणम,
तंजावूर
शीरकाल आदि और
भी अनेक
स्थानो पर
शिवजी के
मन्दिर
कावेरी के तट
पर बने हैं।
तिरुचिरापल्ली
शहर के
बीच में एक
ऊंचे टीले पर
बना हुआ
मातृभूतेश्वर
का मन्दिर और
उसके चारों ओर
का किला
विख्यात है।
एक
जमाने में
तिरुचिरापल्ली
जैन धर्म का
भी केंन्द्र
माना जाता था।
शैव
और वैष्णव
संप्रदाय के
कितने ही
आचार्य और संत
कवि कावेरी के
तट पर हुए
हैं। विख्यात
वैष्णव
आचार्य श्री
रामानुज को
आश्रय देनेवाला
श्रीरंगपट्रणम
का राजा
विष्णुवर्द्धन
था। तिरुमंगै
आलवार और कुछ
अन्य वैष्णव
संतों को
कावेरी-तीर ने
ही जन्म दिया
था। सोलह वर्ष
की आयु में शैव
धर्म का
देश-भर में
प्रचार
करनेवाले संत
कवि
ज्ञानसंबंधर
कावेरी-तट पर
ही हुए थे।
महाकवि
कंबन ने
तमिल भाषा
में अपनी विख्यात
रामायण की
रचना इसी
कावेरी के तट
पर की थी।
तमिल भाषा के
कितने ही
विख्यात
कवियों को माता
कावेरी ने
पैदा किया है।
दक्षीण
संगीत को नये
प्राण
देनेवाले संत
त्यागराज,
श्यामा
शास्त्री और
मुत्तय्य
दीक्षित इसी
कावेरी तट के
निवासी थे। यह
कहना अनुचित
नहीं होगा कि
दक्षीण की
संस्कृति
कावेरी माता
की देन है।
मंण्डल’
द्वारा
प्रकाशित
सुबोध
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