सुबोध साहित्य माला

 

 

      हमारी

बोधकथाएं

 

 

लेखकसंपादक

यशपाल जैन

          

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक

मंत्री

सस्ता साहित्य मण्डल

एन-७७, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली-११०००१

·         

छठी बार  :    २००१

    प्रतियॉँ  :   १,०००

           मूल्य   :          रु. २०.००

·         

मुद्रक

बुकमैंन प्रिन्टर्स

दिल्ली-९२

 

 


प्रकाशकीय

 

          प्रत्येक देश के साहित्य में बोध-कथाओं का अनन्त भण्डार होता है। इन कथाओं में कोई-न-कोई शिक्षा निहित होती है। अत: उन्हें पढ़ने के लिए पाठक निरंतर लालायित रहते है। इतना ही नहीं, उन्हें पढ़कर एक क्षण सोचने के लिए बाध्य भी हो उठते हैं।

          इस पुस्तक में हमने चुनी हुई बोध-कथाओं का संग्रह किया है। पाठक देखेंगे कि ये कथाएं देश-काल की सीमा में आबद्ध नहीं हैं। ये सबके लिए और सब समय के लिए उपयोगी हैं।

          आज के व्यस्तता के जीवन में बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़ने का कम ही व्यक्तियों के पास समय रहता है। ये छोटी-छोटी कथाएं अधिक समय नहीं चाहतीं। फिर परिवार का प्रत्येक सदस्यछोटे-बड़े सभीइन कथाओं को पढ़कर इनसे लाभ उठा सकते हैं। आकार में छोटी होते हुए भी इनमें पर्वत के समान ऊंचाई और सागर के समान गहनता है।

          हम आशा करते हैं कि इस तथा इस माला की सभी पुस्तकों को समस्त क्षेत्रों में चाव से पढ़ा जायगा और इसका देश भर में प्रसार होगा।

मंत्री


अनुक्रम

आचार्य विनोबा

१.जैसी दृष्टि , २. वित्त में अमृत्तत्व नहीं

३.क्रोधाग्नि पर प्रेम का पानी ४.निष्पाप-

जीवन का रहस्य, ५.संत की महानता

६.अपरिग्रही संन्यासी, ७.भगवान के बेटों को

न सताओं, ८. श्रद्धा नहीं तो बेड़ा गर्क , ९.

पूर्णमद:पूर्णमिदम् ;

श्रीअरविंद

क्षमा का आदर्श ,

माताजी

१. प्रेम की महीमा , २. सच्चाई , . प्रफुल्लता

आचार्य रजनीश

१. मृत्यु से अभय , . अमृत्व की किरण, ३. मैंका ताला , . मजबूत किला , . भीतरी और बाहरी सम्पदा , . यह  कैसी धर्म साधना? , . छोटे

श्री सत्यनाराण गोयनका

नाम नहीं, कर्म प्रधान ,       

रवीन्द्र

१. प्रार्थना , २. छुट्टियां

काशीनाथ त्रिवेदी

१. विश्वास , २. दोष-दर्शन , , धर्म-ऋण , ४. शब्द की शक्ति , ५. पीड़ पराई जाणे रे

साध्वी चेतना

मांस का मूल्य ,

मनोहर लाल    

१.सहन-शक्ति , २. मध्यम मार्ग ,

विक्रमकुमार जैन

१.सुख की खोज, २.चूहा और गिलहरी ,

श्रीकृष्ण   

१.ज्ञान-सिद्धि ,२.शैतान का दाहिना हाथ ,३.अपने चोट , ४.विधाता की अनोखी

रचना ,

 

नागेश्वरसिह शशीन्द्र

१. मीठी सजा , २. साधु और दीया ,

रामनारायण उपाध्याय

१. स्नेह का बोझ नहीं होता , २. बड़ा कौन? , ३. चरित्र की सीढ़ियां ;

शिवपनाथसिंह शाण्डिल्य

१. खुदा का अहसान , २. इंसानियत , ३. सबसे बड़ा धर्म ;

चौधरी

१. पेट सबका बराबर , २. ईमानदारी और न्यायप्रियता , ३. बड़े पद के लिए योग्यता

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

१. आहुति , २. जैसी करनी वैसी भरनी, ३. बुराई और भलाई

प्रकाश हितैषी शास्त्री

१. एकत्व में सुख, द्वंद्व में दु:ख , २. माया में डूबा जीवन ,

मुकुलभाई कलार्थी

१. उदार-दृष्टि , २. मित्र की कसौटी , ३. मातृ-भक्ति का प्रभाव , ४ मनुष्य की आयु, ५.संत की महिमा , ६.सच्चा मूल्य ;

आचार्य तुलसी

१. नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि , २.महत्वाकांक्षा की तलवार , ३. स्वभाव का नतीजा ;

मुनि नथमल

१. अपनी-अपनी दृष्टि , २. अति सर्वत्र वर्जयेत , ३. समझ का फेर ;

आदित्य प्रचण्डिया दीति

साधना और सिद्धि ,

भागीरथ कानोडिया

१. ईश्वर सदा और सर्वत्र है , २. धरती का रस , ३. मौलवी की आंखें खुलीं ;

मार्तण्ड उपाध्याय

१. मैं भी ऐसी रजाई ओढूंगा , २. बड़े का बड़प्पन , ३. ममता से बड़ा कर्त्तव्य ,;

४. होली की लकड़ी , ५. बड़ों की विनम्रता

यशपाल जैन

१. तोड़ों नहीं, जोड़ों , २. हम सब चोर हैं, ३. भगवान के दरबार में सब बराबर , ४. धीरज का फल  , , आखिरी दरवाजा , , नशे का तमाशा , ७. दान

का आनंद ।


हमारी

बोध-कथाएं

 

   आचार्य विनोबा

१ :: जैसी दृष्टि

रामदास रामायण लिखते जाते और शिष्यों को सुनाते जाते थे। हनुमान भी उसे गुप्त रुप से सुनने के लिए आकर बैठते थे। समर्थरामदास ने लिखा, हनुमान अशोक वन में गये, वहाँ उन्होंने सफेद फूल देखे।

यह सुनते ही हनुमान झट से प्रकट हो गये और बोले, मैंने सफेद फूल नहीं देखे थे।  तुमने गलत लिखा है, उसे सुधार दो।

समर्थ ने कहा, मैंने ठीक ही लिखा है। तुमने सफेद फूल ही देखे थे।

 

हनुमान ने कहा, कैसी बात करते हो! मैं स्वयं वहां गया और मैं ही झूठा!”

अंत में झगड़ा रामचंद्रजी के पास  पहुंचा। उन्होंने कहा, फूल तो सफेद ही थे, परंतु हनुमान की आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं, इसलिए वे उन्हें लाल दिखाई दिये।

          इस मधुर कथा का आशय यही है कि संसार की ओर देखने की जैसी हमारी दृष्टि होगी, संसार हमें वैसा ही दिखाई देगा।

 २::वित्त में अमृतत्व नहीं

          पुरानी कहानी है। याज्ञवलक्य ऋषि के दो पत्नियां थीं। एक सामान्य, संसार में आसक्ति रखनेवाली और दूसरी विवेकशील, जिसका नाम मैत्रेयी था। याज्ञवल्क्य को लगा कि अब घर छोड़कर आत्मचिंतन के लिए बाहर जाना चाहिए। जाते समय उन्होंने दोनों पत्नियों को बुलाया और कहा, अब मैं घर छोड़कर जा रहा हूं। जाने से पहले जो भी संपत्ति है, आप दोनों में बांट दूं।

          मैत्रयी ने पूछा, क्या पैसे से अमृत-जीवन प्राप्त हो सकता है?

          याज्ञवल्कय ने जवाब दिया, नहीं, अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनवित्त से अमृतत्व की आशा करना बेकार है। उससे तो वैसा जीवन बनेगा, जैसाकि श्रीमानों का होता है। वह तो मृत-जीवन है। अमृत-जीवन की अगर इच्छा है तो आत्मा की व्यापकता का अनुभव करो। सबकी सेवा करो। सबसे एकरुप हो जाओ।

 

३::क्रोधाग्नि पर प्रेम का पानी

         

एक बार ज्ञानदेव महाराज को क्रोध आ गया तो उनकी बहन मुक्ताई ने कहा, ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा, (ज्ञानेश्वर महाराज, आप अपना अकड़ना कम कीजिए)।

          उन्होंने कहा, विश्व रागे झाले बहन, संत मुखे बहावे पानी। (यदि दुनिया आग-बबूला हो उठे तो संतों को चाहिए की स्वयं पानी बन जायें)।

अग्नि को पानी बुझा देता है। अगर पानी में  आग डाल दे तो क्या वह पानी को जला देगी या खुद बुझ जायेगी? संतों का स्वभाव भी ऐसा होना चाहिए। कोई कितना ही क्रोधित क्यों न हो, उन्हें शांत रहना चाहिए।

 

४::निष्पाप जीवन का रहस्य

         

एक सज्जन ने एकनाथ से पूछा, महाराज, आपका जीवन कितना सीधा-साधा और निष्पाप है! हमारा जीवन ऐसा क्यों नहीं ? आप कभी किसी पर गुस्सा नहीं होते। किसी से लड़ाई झगड़ा नहीं, टंटा-बखेड़ा नहीं। कितने शांत, कितने प्रेमपूर्ण, कितने पवित्र हैं आप!”

          एकनाथ ने कहा, अभी मेरी बात छोड़ो। तुम्हारे संबंध में मुझे एक बात मालूम हुई है। आज से सात दिन के भीतर तुम्हारी मौत आ जायेगी।

          एकनाथ की कही बात को झूठ कौन मानता! सात दिन में मृत्यु! सिर्फ १६८ घंटे बाकी रहे! हे भगवान! यह क्या अनर्थ ? वह मनुष्य जल्दी-जल्दी घर दौड़ गया। कुछ सूझ नहीं पड़ता था। आखिरी समय की, सब कुछ समेट लेने की, बातें कर रहा था। वह बीमार हो गया। बिस्तर पर पड़ गया। छ: दिन बीत गये। सातवें दिन एक नाथ उससे मिलने आये। उसने नमसकार किया। एकनाथ ने पूछा, क्या हाल है?

          उसने कहा, बस अब चला!”

          नाथजी ने पूछा, इन छ: दिनों में कितना पाप किया? पाप के कितने विचार मन में आये?

          वह मरणासन्न व्यक्ति बोला, नाथजी, पाप का विचार करने की तो फुरसत ही नहीं मिली। मौत एक-सी आंखों के सामने खड़ी थी।

          नाथजी ने कहा, हमारा जीवन इतना निष्पाप क्यों है, इसका उत्तर अब मिल गया न?

          मरण रुपी शेर सदैव सामने खड़ा रहे, तो फिर पाप सूझेगा किसे?

 

५::संत की महानता

         

संत अलवार की झोपड़ी में उसके सोनेभर की ही जगह थी। बारिश हो रही थी। किसी ने दरवाजे को खटखटाते हुए पूछा, क्या अंदर जगह है?

          उसने जवाब दिया, हां, यहां पर एक सो सकता है, पर दो बैठ सकते हैं। जरुर अंदर आइये।

          उसने उस भाई को अंदर ले लिया और दोनों बैठे रहे। इतने में तीसरा व्यक्ति आया और पूछने लगा, क्या अंदर जगह है?       

          संत अलवार ने जवाब दिया, हो, यहां, पर दो तो बैठ सकते हैं, पर तीन खड़े हो सकते हैं। आप भी आइये।

          उसने उस भाई को भी अंदर बुला लिया और तीनों रातभर कोठरी में खड़े रहे।

          उसने अगर यह कहा होता कि, समाजवाद तो तब होता, जब मेरा मकान बड़ा होता और तभी आपको जगह दी जाती, तो क्या उसे यह शोभा देता? या अगर वह यह कहता कि, मेरी कोठरी छोटी है, मेरे अकेले के ही सोने लायक है, इस हालत में मैं इसे कैसे बांट सकता हूं, अत: अन्य किसी के पास जाइये। तो वह संत अलवार नहीं बनता। वह एक सामान्य नीच मनुष्य ही होता, जिसे मनुष्य कहना भी मुश्किल है।

 

६::अपरिग्रही संन्यासी

           

एक संन्यासी अपने आपको अपरिग्रही कहता था। उसने अपने पास केवल एक तुंबा रखा था। एक दिन उसे प्यास लगी और वह नदी पर गया। साथ में तुंबा लिया। उसके  पीछे-पीछे एक कुत्ता भी वहां पहुँचा। कुत्ते ने चट से पानी पिया और भाग गया। संन्यासी ने सोचा, “मैं अपरिग्रही हूँ या कुत्ता, क्योंकि वह मेरे बाद आया और पानी पीकर चला भी गया। इसलिए सच्चा संन्यासी वहीं हैं।वहीं मेरा गुरु है।” यह कहकर उसने तुंबा नदी को अर्पित कर दिया।

 

७::भगवान के बेटों को न सताओ

         

संत पाल की एक कहानी बड़ी मशहूर है। इस ईसाई संत ने ईसाई धर्म का खूब प्रचार किया था। वह पहले कोई महापंडित और ईसाइयत का घोर विरोधी था।

          ईसा के शिष्य बिल्कुल सीधे-सादे और गरीब हुआ करते थे। कोई मछुआ था तो कोई बुनकर। मछुआ से ईसा ने कहा, कम एंड फॉलो मी, एंड आई विल मेक यू फिशर्ज ऑफ मैंन।(तुम मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हे मछुआ नहीं, मनुष्य-मार बनाऊंगा।) वे अपना जाल छोड़कर ईसा के पीछे हो लिये।

          ईसा के शिष्य एक के बाद एक मारे गये और सताये जाते थे। यह पाल ही, जो पहले साल था, उन्हें बहुत सताता था। एक बार ईसा के अनुयायी कहीं जा रहे थे और पाल उनको सतानेवाला था।

          उसे पहली ही रात नींद नहीं आई और सपने में भगवान आकर बोले, सॉल! सॉल! व्हाई डू यू परसीक्यूट मी?(सॉल-सॉल, तुम मुझे क्यों सताते हो?)

          साल ने कहा, तुझे तो मैं नहीं सता रहा हूं। तुझे कब सताया है?

          तब ईसा बोले, तू मेरे लड़को को सताता है, तो मुझे ही सताता है।

          वह वाक्य उसने सुना और उसके दिल का परिवर्तन हो गया। वह साल से पाल होकर ईसा का ऐसा श्रेष्ठ शिष्य बना, जिसके दिल में भगवान आ विराजे।

 

८::श्रद्धा नहीं तो बेड़ा गर्क

         

एक साधु था। उसने अपने चेले से कहा, राम-नाम जपने से मनुष्य हर संकट से पार हो सकता है। गुरु-वाक्य पर शिष्य को श्रद्धा तो थी, लेकिन पूरा-पूरा विश्वास नहीं था कि राम-नाम चाहे जिस संकट से उबार देगा।

          एक बार उसे नदी पार करनी थी। वह बेचारा अर्धश्रद्धालु राम-नाम रटता हुआ नदी पार करने लगा। जैसे-जैसे गले तक पानी में गया और वहां से गोते खाता हुआ बड़ी मुश्किल से वापस आ गया। गुरु से कहने लगा, लगातार नाम-स्मरण किया, लेकिन पानी कम नहीं हुआ। सब अकारथ गया।

 

गुरु बोला, अनेक बार नाम-स्मरण किया, इसलिए अकारथ गया। अगर नाम-स्मरण में श्रद्धा थी तो एक बार किया हुआ नाम-स्मरण तुझे काफी क्यों नहीं लगा? श्रद्धा कम थी इसीलिए तूने बार-बार नाम-स्मरण किया और इसीलिए गोते खाये।

 

९::पूर्णमद: पूर्णमिदम्

 

एक दफा एक पिता और पुत्र खाने बैठे। पिता की थाली में मां ने एक पूरा लड्डू रखा और बच्चे की थाली में आधा। बच्चा रोने लगा, हठ करने लगा कि हमे पूरा ही लड्डू चाहिए।

मां कुशल थी। उसने एक छोटा-सा गोल लड्डू बनाया। और बच्चे को परोस दिया। लड़का खुश हुआ, क्योंकि उसे पूरा लड्डू मिल गया था।

इसका अर्थ यह हुआ कि बच्चा कहता है, मेरा बाप जितना पूर्ण आत्मा है, उतना ही पूर्ण आत्मा मैं भी हूं। मैं छोटा हूं, पर टुकड़ा नहीं हूं।

जो विश्व का राज होगा, वह बड़ा होगा और गांव का राज छोटा लड्डू होगा। पर वह भी पूर्ण होना चाहिए। इसीलिए हम हमेशा कहते हैं—पूर्णमद: पूर्णमिदम्।


श्रीअरविंद

 १::क्षमा का आदर्श

 

चंद्रमा धीरे-धीरे काले बादलों में से लुकता-छिपता निकल रहा था। वायु के साथ-साथ नदी नाचती, बल खाती जा रही थी। कहीं चांदनी छिटकी थी, कहीं अंधेरा छाया था। बड़ा ही सुंदर दृश्य था।

चारो ओर ऋषियों के आश्रम थे। एक-एक आश्रम नंदन-वन को मात करता था। हरएक ऋषि की कूटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। अद्भुत शोभा थी वहां कीं ऐसी ही एक रात थी, जब चांदनी छिटकी हुई थी । ब्रह्मर्षि वसिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुन्धती से कह रहे थे, देवी! ऋषि विश्वामित्र केयहां जाकर जरा-से नमक की भीख मांग लाओ।

इस बात से विस्मित होकर अरुन्धती ने कहा, यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ समझ भी नहीं पाई। जिसने मुझें सौ पुत्रों से वंचित किया........कहते-कहते उनका गला भर आया। पुरानी स्मृतियां जाग उठीं। वह अपूर्व शांति का धाम हृदय की व्यथा से भर गया।

उन्होंने आगे कहा, मेरे बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना-शोभित रात्रि में वेद पाठ करते-फिरते थे। मेरे सौ-के-सौ पुत्र वेदज्ञ और ब्रह्मनिष्ठ थे। मेरे उन सौं पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप  उसी के आश्रम में लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? मैं कुछ नहीं समझ पाती।

          धीरे-धीरे  ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया। धीरे-धीरे सागर-गंभीर हृदय से यह वाक्य निकला, लेकिन, देवी, मुझे उससे प्रेम है।

          अरुन्धती और भी चकरा गई। उन्होंने कहा, आपकों उनसे प्रेम है तो एक बार ब्रह्मर्षि कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोंने पड़ते।

          ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने, मुझे उससे प्रेम है, इसलिए उसे ब्रह्मर्षि नहीं कहता। मैं उसे ब्रह्मर्षि नहीं कहता, इसीलिए उसके ब्रह्मर्षि होने की आशा है।

          आज विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। तपस्या में उनका मन नहीं लग रहा। उन्होंने निश्चय किया है कि  आज भी वसिष्ठ उन्हें ब्रहर्षि न कहें तो उनके प्राण ले लेंगे। अपना संकल्प पूरा करने के लिए वह हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले।

         

 

     

     उन्होंने वसिष्ठ की उपर्युक्त सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मुंठ पर से हाथ की पकड़ ढीली हो गई। सोचा, आह! क्या कर डाला मैंने! बिना जाने कितना अन्याय कर डाला! बिना जाने किसके निर्विकार चित्त को व्यथा पहुंचाने की कोशिश की!”हृदय में सैकड़ों बिच्छुओं के काटने की वेदना होने लगी। पश्चाताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौंडे गये और वसिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े।

          कुछ देर तक मुंह से बोल न फूटे। अपने आपे में आये तो विश्वामित्र ने कहा, क्षमा किजिये, यद्यपि मैं क्षमा के अयोग्य हूं। और कोई शब्द मुंह से न निकला। इधर वसिष्ठ ने क्या किया? दोनों हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले, उठो ब्रह्मर्षि, उठो।

          विश्वामित्र लज्जित हो गये। बोले, प्रभो! क्यों लज्जित करते हैं?

          वसिष्ठ ने उत्तर दिया, मैं कभी झूठ नहीं बोला करता। आज तुम ब्रह्मर्षि-पद पाया हैं।

          विश्वामित्र ने कहा, आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिये।

          वसिष्ठ बोले, अनंत देव(शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे।    

            विश्वामित्र वहां जा पहुंचे, जहां अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे

हुए थे। अनंत देव ने कहा, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूं जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किये हुए हूं।

 

तपोबल के गर्व से विश्वमित्रा ने कहा, आप पृथ्वी को छोड़ दीजिये, मैं उसे धारण कर लूंगा।

अनंत देव ने कहा, अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूं।

और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी।

विश्वामित्र ने कहा, मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूं। पृथ्वी! रुक जाओ।

फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई।

अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।

विश्वामित्र बोले, क्षणभर के लिए वसिष्ठ के साथ रहा हूं।

अनंत देव ने कहा, तो उसी का फल दे दो।

विश्वामित्र बोले, अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूं।

 

 

और धरती स्थिर हो गयी।

तब विश्वामित्र ने कहा, देव! अब मुझे आज्ञा दें।

अनंत देव ने कहा, मूर्खं विश्वामित्र! जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान मांग रहे हो?

विश्वामित्र क्रुद्ध हो गये। उन्होंने सोचा, इसका मतलब यह है कि वसिष्ठ मुझे ठग रहे थे।

वे तेजी से वसिष्ठ के यहां जापहुंचे और बोले, आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा?

वसिष्ठ बोले, अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता। इस अनुभव के बाद तुम विश्वास करोगे।

विश्वामित्र ने वसिष्ठ से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा पाई।

भारत में ऐसे-ऐसे ऋषि, ऐसे-ऐसे साधु थे। हमारे यहां क्षमा का यह आदर्श था। तपस्या का ऐसा बल था, जिसके द्वारा समस्त पृथ्वी को धारण किया जा सके। भारत में फिर से ऐसे ऋषि जन्म ग्रहण कर रहे हैं, जिनकी प्रभा के आगे प्राचीन ऋषियों की ज्योति फीकी होगी, जो भारत को फिर प्राचीन गौरव की अपेक्षा अधिक गौरवमय स्थान पर प्रतिष्ठित करेंगे।

(श्री अरविंद की बंगला कहानी से)


 

 

माताजी

१ : : प्रेम की महिमा  

कई ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिन्हें हम दुष्ट समझ कर उनसे प्रेम नहीं करते। उनके अंतरतम में भी कोई-न-कोई ऐसा गुण होता है, जिसे हम देख नहीं पाते।

       आगोबीओ शहर के आसपास के खेतों और जंगलों में एक विशालकाय भेड़िये का इतना आतंक छाया हुआ था कि वहां कोई रास्ता चलने का साहस नहीं करता था। वह अनेक मनुष्यों और पशुओं का सफाया कर चुका था।

          अंत में संत फ्रांस्वा ने उस भयानक जानवर का सामना करने का निश्चय किया। वे शहर से बाहर निकले। उनके पीछे पुरुषों और त्रियों की भारी भीड़ थी। ज्यों ही वे जंगल के समीप पहुंचे, त्योंही भेड़िया मुंह फाड़े संत की ओर लपका, परन्तु फ्रांस्वा ने शांतिपूर्वक एक संकेत किया और भेड़िया ठंडा होकर उनके पैरों के पास ऐसे लोट गया, मानो भेड़ का बच्चा हो।

          भाई, भेड़िये, संत फ्रांस्वा ने कहा, तूने इस देश को बहुत हानि पहुंचाई है। जो दंड हत्यारों को मिलना चाहिए, उसी दंड का तू अधिकारी है। सब लोग तुझसे घृणा करते हैं, परन्तु यदि तेरे और आगोबीओ के मेरे इन मित्रों के बीच मैत्री स्थापित हो जाय तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।

          भेड़िये ने अपना सिर झुका लिया और वह अपनी पूंछ हिलाने लगा।

          संत फ्रांस्वा ने फिर कहा, भाई भेड़िये! मैं तुझसे प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि तू इन लोगों के साथ शांतिपूर्वक रहना स्वीकार कर ले तो ये तेरे साथ अच्छा बर्ताव करेंगे और तुझे प्रतिदिन खाना भी देंगे। क्या तू भी यह प्रतिज्ञा करता है कि आज से तू इन्हें कोई हानि नहीं पहुंचायेगा?

          अब तो भेड़िये ने अपना सिर पूरी तरह से झुका लिया और अपना बायां पंजा  संत के हाथ में रख दिया। इस प्रकार सच्चे दिल से दोनों में संधि स्थापित हो गयी।

         

 

 

     तब फ्रांस्वा भेड़िये को आगोबीओ के विशाल जनपथ की ओर ले चले। वहां नागरिकों

की बड़ी भीड़ के सामने उन्होंने उक्त वचन फिर दुहराये। भेड़िये ने फिर से अपना पंजा संत के हाथ में रख दिया, जिसका अर्थ था कि वह भविष्य में अच्छे आचरण करने की प्रतिज्ञा करता है।

          उसके बाद वह भेड़िया उस नगर में दो वर्ष तक रहा और उसने इस बीच में कोई हानि नहीं पहुंचाई। नगरवासी भी उसके लिए प्रतिदिन भोजन लाते थे जब उसकी मृत्यु हुई तो सबको दु:ख हुआ।

          वह भेड़िया कितना भी बुरा क्यों न प्रतीत होता हो,  पर उसके अंदर एक ऐसी चीज थी, जिसे, वास्तव में, तबतक किसी व्यक्ति ने नहीं जाना, जबतक संत फ्रांस्वा ने उसे भाई कहकर संबोधित नहीं किया। इस कहानी में भेड़िया नि:संदेह एक बड़े अपराधी का दृष्टांत उपस्थित करता है, जिससे सब लोग घृणा करते हैं, परंतु यह हमें बताती है कि उन लोगों में भी, जिनसे किसी को कोई आशा नहीं होती, भलाई के कुछ ऐसे बीज होते हैं, जो तनिक-सा प्रेम पाकर फूट निकलते हैं।

          ऐसा कोई भी लड़की का तख्ता न होगा-चाहे वह कितना भी सड़ा-गला क्यों न हो, जिसमें एक कुशल मिस्त्री कुछ रेशे ठीक अवस्था में न देख सके। एक फूहड़ कारीगर अज्ञान और घृणावश उसे फेंक देगा, पर एक प्रवीण बढ़ई उसे उठाकर रख लेगा और जो हिस्सा सड़ गया है, उसे निकाल कर बाकी को होशियारी से रंदा फेर कर साफ कर लेगा। वृक्षों की कठोर गाठें मूर्ति बनानेवाले कलाकार के बड़े काम आती हैं, क्योंकि उन्हीं में वह छोटे-छोटे अत्यंत आकर्षक चित्र सकता है।

 

२ : : सच्चाई

         

                हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के कुमायूं नामक स्थान का राजा एक बार अल्मोड़े की घाटी में शिकार खेलने गया। उस समयवह स्थान घने जंगल से ढका था।

          एक खरगोश झाड़ियों में से निकला। राजा ने उसका पीछा किया, किंतु अचानक वह खरगोश चीते में बदल गया और शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हो गया।

          उस आश्चर्यजनक घटना से स्तंभित हुए राजा ने पंडितों की एक सभा बुलाई और उनसे इसका अर्थ पूछा।

         

 

 

                  उन्होंने उत्तर दिया, इसका अर्थ यह है कि जिस स्थान पर चीता दृष्टि से ओझल हुआ था, वहां आपको एक नया शहर बसाना चाहिए, क्योंकि चीते केवल उसी स्थान से भाग जाते हैं, जहां मनुष्यों को एक बड़ी संख्या में बसना हो।                                                               

          अतएव नया शहर बसाने के लिए मजदूर लोग काम पर लगा दिये गए। अंत में जमीन को कठोरता देखने के लिए एक स्थान पर उन्होंने लोहे की एक मोटी कील गाड़ी। उस समय अचानक पृथ्वी में एक हल्का-सा कंपन हो उठा।

          ठहरो! पंडित लोग चिल्ला पड़े, इसकी नोक सर्पराज शेषनाग की देह में धंस गई है। अब यहां शहर नहीं बनाना चाहिए।

जब वह लोहे की कील पृथ्वी से बाहर निकाली गई तो वह वास्तव में शेषनाग के रक्त से लाल हो रही थी।

यह तो बड़े दु:ख की बात है, राजा बोला, हम यहां शहर बनाने का निश्चय कर चुके हैं, इसलिए अब बनाना ही होगा।

पंडितों ने क्रोध में आकर भविष्यवाणी की कि शहर पर कोई भारी विपत्ति आयेगी और राजा का अपना वंश भी शीघ्र ही नष्ट हो जायगा।

जमीन वहां की उपजाऊ थी और पानी भी खूब था। छ:सौ साल से अल्मोड़ा शहर उस पहाड़ पर बसा हुआ है और उसके चारों ओर फैले खेत बढ़िया फसलें पैदा करते हैं।

इस प्रकार बुद्धि रखते हुए भी वे पंडित अपनी भविष्यवाणी में गलत निकले। नि:संदेह वे सच्चे थे और उन्हें विश्वास था कि वे सत्य कह रहे हैं, किंतु लोग ऐसी गलती प्राय: करते हैं और अंध-विश्वास को वास्तविकता समझ लेते हैं।

संसार अंधविश्वासों से भरा पड़ा। सत्य को ढूंढ़ने का सबसे अच्छ तरीका यह है कि मनुष्य सदा अपने विचारों, कार्यों और वचनों में अधिकाधिक सच्चे और निष्कपट रहें, क्योंकि दूसरों को सब बातों में धोखा देना छोड़कर ही हम अपने-आपको कम-से-कम धोखा देनी सीखते हैं।

 

३ : : प्रफुल्लता

 

  खुरासान का एक राजकुमार था। नाम था अमर। खूब ठाट-बाट की जिंदगी थी। एक बार जब वह लड़ाई में गया तो उसके रसोईघर के सामान को लेकर तीन सौ ऊंट भी उसके साथ गये। दुर्भाग्य से एक दिन वह खलीफा इस्माइल द्वारा बंदी बना लिया गया,

 

 

 पर दुर्भाग्य भूख को तो नहीं टाल सकता। उसने पास खड़े अपने मुख्य रसोइये से, जो एक भला आदमी था, कहा, भाई, कुछ खाने को तो तैयार कर दे।

उस बेचारे के पास केवल एक मांस का टुकड़ा बचा था। उसने ही देगची में उबलने को रख दिया और भोजन को कुछ अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए स्वयं किसी साग-सब्जी की खोज में निकला।इतने में एक कुत्ता वहां से गुजरा।

मांस की सुगंध से आकर्षित हो उसने अपना मुंह देगची में डाल दिया। पर भाप की गर्मी पर वह तेजी से और कुछ ऐसे बेढंगे तरीके से पीछे  हटा कि देगीची उसके गले में अटक गई। अब तो घबराकरवह देगची के साथ ही वहां से भागा।

अमर ने जब यह देखा तो जोर से हँस पड़ा। उसके अफसर ने, जो उसकी चौकसी पर नियुक्त था, उससे पूछा, यह हँसी कैसी? इस दु:ख के समय भी आप हँस रहे हो!

अमर ने तेजी से भागते हुए कुत्ते की ओर इशारा करते हुए कहा, “”मुझे यह सोचकर हँसी आरही है कि आज प्रात:काल तक मेरी रसोई का सामान ले जाने के लिए तीन सौ ऊंटों की आवश्यकता पड़ती थी, और अब उसके लिए एक कुत्ता ही काफी है।

अमर को प्रसन्न रहने में एक स्वाद मिलता था। यद्यपि दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए वह उतना प्रयत्नशील नहीं था, फिर भी उसके विनोदी स्वभाव की प्रशंसा किये बिना हम नहीं रह सकते। यदि वह इतनी गम्भीर विपत्ति में भी प्रसन्न रह सकताथा तो क्या हम मामूली चिंता में मुंह पर एक मुस्कराहट भी नहीं ला सकते?

 

४ : : भला स्वभाव

 

फारस देश में एक स्त्री थी, जो शहद बेचने का व्यवसाय करती थी। उसकी बोलचाल का ढंग इतना आकर्षक था कि उसकी दुकान के चारों ओर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी। यदि वह शहद की जगह विष भी बेचती तो भी लोग उसे शहर समझकर ही उससे खरीद लेते।

एक ओछी प्रकृतिवाले मनुष्य ने जब देखा कि वह स्त्री इस व्यवसाय से बहुत लाभ उठा रही है तो उसने भी इसी धंधे को अपनाने का निश्चय किया। दुकान तो उसने खोल ली, पर शहद के सजे-सजाये बर्तनों के पीछे उसकी अपनी आकृति कठोर ही बनी रही। ग्राहकों का स्वागत वह सदा अपनी कुटिल भृकुटि से करता था। इसलिए सब उसकी चीज छोड़ आगे बढ़ जाते थे। एक मक्खी भी उसके शहद के पास फटकने का साहस नहीं

 

 

करती थी। शाम हो जाती, पर उसके हाथ खाली-के-खाली ही रहते। एक दिन एक स्त्री उसे देखकर अपने पति से बोला, कड़ुआ मुख शहद को भी कड़ुआ बना देता हैं

क्या वह शहद बेचनेवाली स्त्री केवल ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए मुस्कराती थी? हम तो यही सोचते हैं कि उसका उल्लास उसके भले स्वभाव का एक अंग था। संसार में हमारा कार्य केवल बेचना और खरीदना ही नहीं है, हमें यहां एक-दूसरे का मित्र बनकर रहना है। उस भली स्त्री के ग्राहक यह जानते थे कि वह एक

दुकानदारिन के अतिरिक्त और कुछ भी थीवह संसार की एक प्रसन्नमुख नागरिक थ! ·

(माताजी की पुस्तक सुन्दर कहानियां से)


 

 

आचार्य रजनीश

 

१ : : मृत्यु से अभय

 

एक युवा सन्यासी था। उस पर एक राजकुमारी मोहित हो गई। राजा को पता चला तो उसने सन्यासी से राजकुमारी के साथ विवाह करने  को कहा। सन्यासी बोला, मैं तो हूं ही नहीं। विवाह कौन करेगा?

संन्यासी की यह बात सुनकर राजा ने अपने को बड़ा अपमानित अनुभव किया। उसने अपने मंत्री को आदेश दिया कि उसे तलवार से मार डाला जाय।

संन्यासी उसके आदेश पर बोला शरीर के साथ मेरा आरम्भ से ही कोई संबंध नहीं रहा। जो अलग ही हैं, आपकी तलवार उन्हें और क्या अलग करेगी? मैं तैयार हूं और आप जिसे मेरा सिर कहते हैं, उसे काटने के लिए उसी प्रकार आमंत्रित करताहूं,जैसे वसंत की यह वायु पेड़ों से उनके फूलों को गिरा रही है।

वह मौसम सचमुच वसंत का था और पेड़ों से फूल गिर रहे थे। राजा ने उन फूलों को देखा, और देखा मौत के सामने उपस्थित जानते हुए भी उस संन्यासी की आनंदित आंखों को। उसने एक क्षण सोचा, जो मृत्यु से भयभीत नहीं है और जो मृत्यु को भी जीवन की भांति स्वीकार करता है, उसे मारना व्यर्थ है। उसे तो मृत्यु भी नहीं मार सकती।

राजा ने अपना आदेश तुरन्त वापस ले लिया।

 

२ : : अमृतत्व की किरण

 

  एक राजा था। वह एक दिन अपने वज़ीर से नाराज हो गया और उसे एक बहुत बड़ी मीनार के ऊपर कैद कर दिया। एक प्रकार से यह अत्यन्त कष्टप्रद मृत्युदण्ड ही था। न तो उसे कोई भोजन पहुंचा सकता था और न उस गगनचुम्बी मीनार से कूदकर उसके भागने की कोई संभावना थी।

           

 

 

 

               जिस समय उसे पकड़कर मीनार पर ले जाया रहा था, लोगों ने देखा कि वह जरा भी चिंतित और दुखी नहीं है, उल्टे सदा की भांति आनंदित और प्रसन्न है। उसकी पत्नी ने रोते हुए उसे विदा दी और पूछा, तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?

उसने कहा, यदि रेशम का एक बहुत पतला सूत भी मेरे पास पहुंचाया जा सकता तो मैं स्वतंत्र हो जाऊंगा। क्या इतना-सा काम भी तुम नहीं कर सकोगी?

 

                उसकी पत्नी ने बहुत सोचा, लेकिन इतनी ऊंची मीनार पर रेशम कापतला धागा पहुंचाने काकोई उपाय उसकी समझ में न आया। तब उसने एक फकीर से पूछा। फकीर ने कहा, भृंग नाम के कीड़े को पकड़ो। उसके पैर में रेशम के धागे को बांध दो और उसकी मूंछों के बालों पर शहद की एक बूंद रखकर उसका मुंह चोटी की ओर करके मीनर पर छोड़ दो।

       उसी रात को ऐसा किया गया। वह कीड़ा सामने मधु की गंध पाकर, उसे पाने के लोभ में, धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा और आखिर उसने अपनी यात्रा पूरी कर ली। रेशम के धागे का एक छोर कैदी के हाथ में पहुंच गया। रेशम का यह पतला धागा उसकी मुक्ति और जीवन बन गया। उससे फिर सूत का धागा बांधकर ऊपर पहुंचाया गया, फिर सूत के धागे से डोरी और डोरी से मोटा रस्सा। उस रस्से के सहारे वह कैद से बाहर हो गया।

          सूर्य तक पहुंचने के लिए प्रकाश की एक किरण बहुत है। वह किरण किसी को पहुंचानी भी नहीं है। वह तो हरएक के पास मौजूद है।

 

३ : : मैं का ताला

         

          एक साधु किसी गांव से गुजर रहा था। उसका एक मित्र साधु उस गांव में रहता था। उसने सोचा, लाओ, उससे मिलता चलूं। रात आधी हो रही थी। फिरभी वह उससे मिलने गया। एक बन्द खिड़की से प्रकाश आते देख कर उसने दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई, कौन है?

          उसने यह सोचकर कि वह आवाज से पहचान लिया जायगा, कहा, मैं हूं।

          इसके बाद भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार दरवाजा खटखटाया, पर भीतर से कोई नहीं बोला। उसे ऐसा लगने लगा, जैसे वह घर बिल्कुल सूना है। उसने जोर से कहा, मेरे लिए तुम दरवाजा क्यों नहीं खोल रहे हो? चुप क्यों हो गये हो

 

 

 भीतर से आवाज आई, तुम कौन ना-समझ हो, जो अपने को मैं कहते हो? मैं कहने को अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं है।

प्रभु के द्वारा पर मैं का ही ताला है। जो उसे तोड़ देते हैं, वे पाते हैं कि द्वारा तो सदा से ही खुले थे।

 

४ : : मजबूत किला

 

एक साधु से उसके मित्रों ने पूछा, यदि दुष्ट लोग आप पर हमला कर दें तो आप क्या करेंगे?

वह बोला, मैं अपने मजबूत किले में जाकर बैठ रहूंगा।

यह बात उस साधु के शत्रुओं के कान तक पहुंच गई। उन्होंने एक दिन एकांत से साधु को घेर लिया और कहा, यह बताइये कि आपका मजबूत किला कहां है?

      साधु खूब हँसने लगा। फिर अपने हृदय पर हाथ रखकर बोला, यह है मेरा किला। इसके ऊपर कभी कोई हमला नहीं कर सकता। शरीर तो नष्ट किया जा सकता है, पर जो उसके भीतर है, उसके रास्ते को जानना ही मेरी सुरक्षा है।

जो व्यक्ति इस मजबूत किले को नहीं जानता, उसका पूरा जीवन असुरक्षित है। प्रति क्षण शत्रुओं से घिरा हैं

 

५ : : भीतरी और बाहरी सम्पदा

एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।

उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने  कहा,

       

          

          

           मै सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरुरत है।

इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछभी लेने से इन्कार कर दिया।

अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।

राजा को विस्मय हुआ! जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहाहै कि उसके पास सबकुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।

राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।

कणाद ने कहा, गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।

एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है,वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।

 

६ : : यह कैसी धर्म-साधना?

 

      एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, मेरी पत्नी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती। यदि आप उसे थोड़ा समझा दें तो बड़ा अच्छा हो।

साधु बोला, ठीक है।

अगले दिन सवेरे ही वह साधु उसके घर गया। पति वहां नहीं था। उसने उसके संबंध में पत्नी से पूछा। पत्नी ने कहा, जहां तक मैं समझती हूं,वह इस समय चमार की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।

पति पास के पूजाघर में माला फेर रहा था। उसने पत्नी की बातसुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। बाहर आकर बोला, यह बिल्कुल गलत है। मैं पूजाघर में था।

 

 

 

 

साधु हैरान हो गया। पत्नी ने यह देखा तो पूछा, सच बताओ कि क्या तुम पूजाघर में थे? क्या तुम्हारा शरीर पूजाघर में, माला हाथ में और मन और कहीं नहीं था।

पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। उसे जूते खरीदने थे और रात को ही उसने अपनी पत्नी से कहा था कि सवेरा होते ही खरीदने जाऊंगा। माला फेरते-फेरते वास्तव में उसका मन चमार की दुकान पर पहुंच गया था और चमार से जूते के मोल-तोल पर कुछ झगड़ा हो रहा था।

विचार को छोड़ो और निर्विचार हो जाओ तो तुम जहां हो, वहीं प्रभु का आगमन हो जाता है।

 

७ : : छोटे-से-छोटे में विराट का संदेश

 

मक्का की बात है। एक नाई किसी के बाल बना रहा था। उसी समय फकीर जुन्नैद वहां आ पहुंचे। उन्होंने कहा, खुदा की खातिर मेरी हजामत भी कर दे।

नाई ने खुदा का नाम सुनते ही अपने गृहस्थ-ग्राहक से कहा, ‘‘दोस्त, अब मैं थोड़ी देर आपकी हजामत नहीं बना सकूंगा। खुदा की खातिर उस फकीर की खिदमत मुझे पहली करनीचाहिए। खुदा का काम सबसे पहले है।’’

          इसके बाद उसने फकीर की हजामत बड़े प्रेम और श्रद्धा-भक्ति से बनाई और नमस्कार करके उसे विदा कर दिया।

          कुछ दिन बीत गये। एक रोज जुन्नैद को किसी नेकुद पैसे भेंट किये तो वह उन्हें नाई को देने आये। पर नाई ने पैसे लेने से इन्कार कर दिया। उसने कहा, ‘‘आपको शर्म नहीं आती? आपने तो खुदा की खातिर हजामत बनाने को कहा था पैसों की खातिर नहीं।’’

          फिर तो जीवन-भर फकीर जुन्नैद को वह बात याद रही और वह अपनी मंडली में कहा करते थे, ‘‘निष्काम ईश्वर-भक्ति मैंने एक हज्जाम से सीखी है।’’

          छोटे-से-छोटे में भी विराट के संदेश छिपे हैं। जो उन्हें उघाड़ना जानता है, वह ज्ञान को प्राप्त करता है जीवन में सजग होकर चलने से प्रत्येक अनुभव प्रज्ञा बन जाता है। जो मूर्च्छित बने रहते हैं, वे दरवाजे पर आये आलोक को भी लौटा देते हैं।

 

 

८ : : खुदी को छोड़ो

         

     एक राजा था। उसने परमात्मा को खोजना चाहा। वह किसी आश्रम में गया। उस आश्रम के प्रधान साधु ने कहा, ‘‘जो कुछ तुम्हारे पास है, उसे छोड़ दो। परमात्मा को पाना तो बहुत सरल है।

          राजा ने यही किया। उसने राज्य छोड़ दिया और अपनी सारी सम्पत्ति गरीबों में बांट दी। वह बिल्कुल भिखारी बन गया, लेकिन साधु ने उसे देखते ही कहा, ‘‘अरे, तुम तो सभी कुछ साथ ले आये हो!’’

          राजा की समझ में कुछ भी नहीं आया, पर वह बोला नहीं। साधु ने आश्रम के सारे कूड़े-करकट का फेंकने का काम उसे सौंपा। आश्रमवासियों को यह बड़ा कठोर लगा, किन्तु साधु ने कहा, ‘‘सत्य को पाने के लिए राजा अभी तैयार नहीं है और इसका तैयार होना तो बहुत ही जरुरी है।’’

          कुछ दिन और बीते। आश्रमवासियों ने साधु से कहा कि अब वह राजा को उस कठोर काम से छुट्टी देने के लिए उसकी परीक्षा ले लें। साधु बोला, ‘‘अच्छा!’’

          अगले दिन राजा अब कचरे की टोकरी सिर पर लेकर गाव के बाहर फेंकने जा रहा था तो एक आदमी रास्ते में उससे टकरा गया। राजा बोला, ‘‘आज से पंद्रह दिन पहले तुम इतने अंधे नहीं थे।’’

          साधु को जब इसका पता चला तो उसने कहा, ‘‘मैंने कहा था न कि अभी समय नहीं आया है। वह अभी वही है।’’

 

कुछ दिन बाद फिर राजा से कोई राहगीर टकरा गया। इस बार राजा ने आंखें उठाकर उसे सिर्फ देखा, पर कहा कुछ भी नहीं। फिर भी आंखों ने जो भी कहना था, कह ही दिया।

साधु को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने कहा, सम्पत्ति को छोड़ना कितना आसान है, पर अपने को छोड़ना कितना कठिन है।

तीसरी बार फिर यही घटना हुई। इस बार राजा ने रास्ते में बिखरे कूड़े को बटोरा और आगे बढ़ गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो   उस दिन साधु बोला, अब यह तैयार है। जो खुदी को छोड़ देता, वही प्रभु को पाने का अधिकारी होता है।सत्य को पाना है तो स्वयं को छोड़ दो। मैं से बड़ा और कोई असत्य नहीं है। ·

 

      श्री सत्यनारायण गोयनका

 

१ : : नाम नहीं, कर्म प्रधान

         

               पुरानी बात हैं। किसी बालक के माँ-बाप ने उसका नाम पापक (पापी) रख दिया। बालक बड़ा हुआ तो उसे यह नाम बहुत बुरा लगने लगा। उसने अपने आचार्य से प्रार्थना की, भन्ते, मेरा नाम बदल दें। यह नाम बड़ा अप्रिय है, क्योंकि अशुभ और अमांगलिक है। आचार्य ने उसे समझाया कि नाम तो केवल प्रज्ञप्ति के लिए, व्यवहार-जगत में पुकारने के लिए होता है। नाम बदलने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। कोई पापक नाम रखकर भी सत्कर्मों से धार्मिक बन सकता है और धार्मिक नाम रहे तो भी दुष्कर्मों से कोई पानी बन सकता है। मुख्य बात तो कर्म की है। नाम बदलने से क्या होगा?

          पर वह नहीं माना। आग्रह करता ही रहा। आग्रह करता ही रहा। तब आचार्य ने कहा, अर्थ-सिद्ध तो कर्म के सुधारने से होगा, परन्तु यदि तू नाम भी सुधारना चाहता है तो जा, गांव भर के लोगों को देख और जिसका नाम तुझे मांगलिक लगे, वह मुझे बता। तेरा नाम वैसा ही बदल दिया जायगा।

          पापक सुन्दर नामवालों की खोज में निकल पड़ा। घर से बाहर निकलते ही उसे शव-यात्रा के दर्शन हुए। पूछा, कौन मर गया? लोगों ने बताया जीवक। पापक सोचने लगा-नाम जीवक, पर मृत्यु का शिकार हो गया!

          आगे बढ़ा तो देखा, किसी दीन-हीन गरीब दुखियारी स्त्री को मारपीट कर घर से, निकाला जा रहा है। पूछा, कौन है यह? उत्तर मिला, धनपाली। पापक सोचने लगा नाम धनपाली और पैसे-पैसे को मोहताज!

और आगे बढ़ा तो एक आदमी को लोगों से रास्ता पूछते पाया। नाम पूछा तो पता चला-पंथक। पापक फिर सोच में पड़ गया-अरे, पंथक भी पंथ पूछते हैं? पंथ भूलते हैं?

          पापक वापस लौट आया। अब नाम के प्रति उसका आकर्षक याविर्कषण दूर हो चुका था। बात समझ में आ गई थी। क्या पड़ा है नाम में? जीवक भी मरते हैं, अ-जीवक

    भी, धनपाली भी दरिद्र होती है, अधनपाली भी, पंथक राह भूलते हैं, अंपथक भी, जन्म का अंधा नाम नयनसुख, जन्म का दुखिया, नाम सदासुख! सचमुच नाम की थोथी महत्ता  निरर्थक ही है। रहे नाम पापक, मेरा क्या बिगड़ता है? मैं अपनला कर्म सुधारुंगा। कर्म ही प्रमुख है, कर्म ही प्रधान है। ·

 

रवीन्द्र

 

१ : : प्रार्थना

             एक ऋषि थे। उनकी मंडली में कभी-कभी कुछ नये विद्यार्थी भी आ जाते थे।             उनके भी अपने प्रश्न होते थे और ऋषिवर हमसे पहले उन्हें अवसर दिया करते थे।

एक दिन घूमते-घूमते कुछ विद्यार्थी आ गये और आते ही उन्होंने हमारे सामने एक प्रश्न रख दिया, जब भगवान् कृपा-सिंधु हैं, सर्वशक्तिमान हैं और घर-घर में निवास करते हैं तो फिर दुनिया में इतना कष्ट क्यों है? हम देखते हैं कि भगवान् का नाम जपने वाले कुछ कम कष्ट नहीं पाते। हमने भी बहुत बार प्रार्थना की है, पर कोई खास असर नहीं हुआ।                                         

          ऋषिवर अभी तक नहीं आये थे, इसलिए उत्तर देने की जिम्मेदारी हम लोगों ने अपने सिर पर ओढ़ ली। मारिया ने कहा, हां, यह बात तो ठीक है कि भगवान् हरएक प्रार्थना को स्वीकार नहीं करते और यह हमारा सौभाग्य है। संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है-सौंपों की, खलों की और लुटेरों की इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, इसीलिए यह जगत बना हुआ है।

      कमल बोला, अरे, दूसरों की बात क्यों? अपनी ही बात ले लो न। कई बार गुस्से   में आकर या निराश होकर हम किसी का सत्यानाश चाहते हैं तो कभी अपनी ही मौत बुलाते हैं। हमने ऐसी नारियां देखी हैं, जो खड़ी होकर भगवान् से प्रार्थना करती हैं कि उनके पति के शरीर में कीड़े-पड़े, लेकिन दूसरे ही क्षण अगर पति के सिर में जरा-सा दर्द हो जाय तो रोती, बिलखती, हा-हा करती हैं। अब बताओ, भगवान् कौन-सी और किसी प्रार्थना स्वीकार करें?

मारिया ने कहा, हां, ठीक ही तो है। किसान चाहता है। कि खूब वर्षा हो और अच्छी फसल आये, व्यापारी चाहता है कि वर्षा कम हो और चीजों के दाम बढ़ जायं। भगवान् किसकी सुनें, किसकी न सुनें?

वंदना अभी तक चुपचाप बैठी थीं। अब उससे न रहा गया। उसने कहा, ऋषिवर से मैंने सुना है कि सच्ची सरल प्रार्थनाएं ही अग्नि की पवित्र ज्वाला की तरह भगवान तक पहुंच सकती हैं। ऐसी-वैसी प्रार्थनाएं धुएं से भरी, दम घोंटनेवाली और भारी होती हैं। परम प्रभु के पास उनकी पहुंच नहीं होती। लेकिन संसार में भगवान् की शक्तियों के विरुद्ध लड़नेवाली आसुरी शक्तियां भी हैं। सारे झगड़े-फिसाद, गाली-गलौज, बुरी इच्छाएं, दूसरों के प्रति असद्भाव-ये सब आसुरी शक्तियों के प्रति की गई प्रार्थनाएं हैं और उनसे इन्हें बढ़ावा मिलता है। दैवी शक्तियां संसार में प्रकाश, सामंजस्य और एकता लाना चाहती हैं और आसुरी शक्तियां अंधकार, वैमनस्य और सामंजस्य का अभाव रखना चाहती हैं। बहुत-कुछ इस पर भी निर्भर है कि हम किससे और कैसी प्रार्थना करते हैं।

अभी यह बात चल ही रही थी कि ऋषिवर आ गये। उन्हें हमारी बातें सुनने में बड़ा मजा आता है। शायद उन्होंने वंदना का भाषण सुन लिया था। आते ही उन्होंने उससे पूछ लिया, तो क्या भगवान् हमारी हर प्रार्थना सुन लेते हैं?

उसने उत्तर दिया, नहीं, भगवान् हमारी वही प्रार्थना स्वीकार करते हैं, जो सचमुच हमारे हित में हो। अगर हम अपने अहित की बात के लिए प्रार्थना करें तो वे उसे ठुकरा देते हैं।

देवर्षि नारद के बारे में एक कहानी है। उन्होंने एक बार काम पर विजय पा ली और इससे फूल उठे। भगवान् गर्व पसंद नहीं करते, क्योंकि गर्व हमारा बहुत अहित करता है। भक्तों में अंदर इसका अंकुर पैदा हो तो वे उसे तोड़ देते हैं।

भगवान् ने एक लीला की। नारद एक ऐसे नगर में जा पहुंचे, जहां राजकुमारी का स्वयंवर होने की तैयारी थी। राजकुमारी आशीर्वाद लेने के लिए नारद के पैरों पर गिरी,

और काम पर विजय पा लेने का गर्व करने वाले नारद उसके ऊपर मुग्ध हो गये। हर क्षण उनके मन में यही विचार काम करने लगा कि राजकुमारी मेरे गले में जयमाला डाल दे। लेकिन यह हो कैसे?

उन्होंने ध्यान लगाया और झट विष्णु भगवान् उनके सामने आ खड़े हुए। नारद ने उन्हें सारी बात बतलाई और बोले, बस, आप मुझे सुन्दरता दे दीजिए, तभी राजकुमारी मुझे जयमाल पहना सकेगी। उसके बिना कोई आशा नहीं।

भगवान् को उत्तर देते देर न लगी। उन्होंने कहा, हम तो सेवक-हितकारी हैं, जो कुछ तुम्हारे हित में होगा, वह अवश्य करेंगे। नारद खुश हो गये और बड़े गर्व के साथ स्वयंवर की सभा में जा बैठे। कहानी तो लंबी है, जो पढ़ना चाहें, तुलसी रामायण में पढ़ लें, पर जिस चीज के साथ मेरे विषय का संबंध है, वह बस इतनी ही है कि भगवान् ने नारद को बंदर का भयावना चेहरा दे दिया और राजकुमारी ने उनकी ओर देखा तक नहीं।

काम-विजय के गर्व को चूर-चूर करने के लिए ही भगवान् ने यह लीला की थी। कई बार हमारी प्रार्थनाएं इसलिए स्वीकार नहीं की जातीं, क्योंकि उनके स्वीकार होने से हमारे कुपंथ पर जाने की संभावना ज्यादा हो जाती है।

अब ऋषिवर ने कहा, और एक बात यह भी तो है कि कई-कई क्यों, अधिकतर प्राथर्नाएं यांत्रिक होती हैं। जैसे मशीन का पहिया घूमा करता है, उसी तरह प्रार्थनाएं घूमती हैं, उनके पीछे जान नहीं होती। ऐसी प्रार्थनाओं का कोई विशेष मूल्य नहीं होता।

प्रार्थना के लिए यह जरुरी है कि वह सच्चे दिल से की जाय और पूरी श्रद्धा के साथ की जाय। श्रद्धा के अभाव में की गई प्रार्थना का कोई मूल्य नहीं होता। हमने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं, जो महादेव, हनुमान, गणपति, पीर साहब आदि अनेकों को पुकार कर अपना काम पूरा करने की फरमाइश करते हैं। इसका मतलब स्पष्ट है कि उन्हें उनमें से किसी के लिए श्रद्धा नहीं है।

वे व्यवहार-कुशल आदमी की तरह दस अफसरों को सलाम करते हैं और आशारखते हैं कि किसी-न-किसी से उनका काम बन ही जायगा।

भगवान् को हमारी श्रद्धा, प्रार्थना या सलामी की जरुरत नहीं है। लेकिन श्रद्धा और प्रार्थना के द्वारा ही हम उनके निकट पहुंच सकते हैं। श्रद्धा के द्वारा ही हमारे अंदर ग्रहण-शीलता आती है, जिससे हम उनकी कृपा को ग्रहण कर पाते हैं। वैसे तो उनकी कृपा हमेशा बरसती रहती है। श्रद्धा के अभाव में हम उसका लाभ नहीं उठा पाते।

 

 

२ : : छुट्टियां

         

        ओं तेजोडसि तेजो में दा स्वाहा, बलमसि बलं में दा स्वाहा...

          आचार्य मार्कन्डेय के आश्रम के ब्रह्मचारी अपने दैनिक कर्म में लगे हुए थे। संध्या-वंदना के बाद उनमें कुछ घुस-पुस सी होने लगी। आचार्य अभी ध्यान में ही थे और ब्रह्माचारी अपने नए उत्साह और कौतूहल को दबाए, अपनी उत्तेजता को छिपाए, कानाफूसी करते हुए इधर-उधर टहल रहे थे। उनके यहां कुछ अरब देशों के विद्यार्थी आये हुए थे। बाहर के लोगों के साथ पहला संपर्क था। भोले बालकों को उनको हर बात पर आश्चर्य हो रहा था।

          आचार्य मार्कन्डेय जंगल में रहा करते थे और उनका गुरुकुल उन्हीं के चारों ओर रहा करता था। आचार्य कभी-कभी एक वन में से दूसरे में चले जाया करते थे और उनका कुल भी उनके साथ स्थान बदल लेता था। उन लोगों की आवश्यकताएं कम थीं। सभी प्रकृति के बालक थे और उसी की गोद में पल रहे थे। मोटा-झोटा खा लेते थे और एकगाती धोती बांधे अपने काम में लगे रहते थे। उनके लिए भले आंधी आये, मेह आये, सभी एक समान था।

          दजला और फिरात के किनारे के रहने वाले नये विद्यार्थियों और अध्यापकों को देखकर उनके अंदर कुतूहल जागा। उनका जीवन, उनकी चाल-ढाल, उनके रंग-ढंग, इनसे बिल्कुल भिन्न थे। इन्हें शिक्षा दी गई थी प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखने की, पर आगन्तुक तो शिकार करते और उसका मांस खाते थे। इन्हें शिक्षा मिली थी दिन-रात नित्य-कर्म, आचार्य-सेवा और भगवद्-भजन में लगे रहने की। वर्षा ऋतु में जब कुछ काम न कर पाते तो अनघ्याय हो जाता। इसके विरीत नवागन्तुक हर सप्ताह छुट्टी मनाया करते थे और उस दिन खूब हो-हल्ला करते, मानो सारा आसमान ही सिर पर उठा लेंगे।

          नवागन्तुकों के साथ परिचय बढ़ा। ब्रह्मचारी पहले तो उनको कुछ आश्चर्य के साथ देखते रहे, जैसे वे कोई अचम्भे की चीज हों। उसके बाद उनकी कई चीजों की सराहना शुरु हुई मन में विकार जागा। सोचा, हमारा कठोर जीवन भी कभी-कभी बदल जाया करे तो हमें भी कभी अध्याय और नित्य कर्म से अवकाश मिल जाय! ...मजा आ जाय!

          पर आचार्य से यह बात कौन कहे? उनके सुकोमल हृदय को आघात न लगे कहीं! खैर, कुछ दिन इसी प्रकार बीत गये। आपस में बातचीज तो रोज होती, पर वह

 कानाफूसी की हद से बाहर न निकल पाती। आखिर एक दिन हिम्मत करके दो-चार ब्रह्मचारी आचार्य के पास जा पहुंचे।

          आचार्य ने बड़े प्रेम से उन्हें बिठाया और उनके असमय आने का कारण पूछा। ब्रह्मचारियों के मन में खटक रहा था कि शायद उनकी बात आचार्य को पसंद न आये। जी कड़ा करके एक ने कहा, आचार्यपाद! दजला और फिरात के किनारे से जो विद्यार्थी आये हैं, उनके साथ हमारा काफी मेल-जोल हो गया है। वे भी एक बहुत सभ्य और सुसंस्कृत देश के नागरिक मालूम होते हैं।

          आचार्य बीच में ही बोले, हां, ये लोग मुसलमान हैं। उस तरफ के देशों में आजकल आर्य-धर्म नहीं चलता। उसकी जगह यहूदी धर्म ने ली थी, फिर ईसा आये और लोग ईसाई बन गये और फिर मुहम्मद के अनुयायियों ने इन सब देशों को मुसलमान बना डाला। पर इन तीनों धर्मों में बहुत समानता है। इन लोगों ने भौतिक विद्याओं में काफी प्रगति कर ली है।

                 गुरुवार! एक ब्रह्माचारी ने कहा, उन विद्यार्थियों को कहना है कि हगारी कार्यप्रणाली ठीक नहीं है। वे लोग सप्ताह में :दिन काम करते हैं और एक दिन अनध्याय रखते हैं। उस दिन वे खूब मौज करते हैं। उनका कहना है कि इस तरह ज्यादा अच्छा काम होता है...

ब्रह्मचारी कहते-कहते रुक गये। आचार्य की आंखों से स्नेह बरस रहा था। उन्होंने कहा, हां, ये सेमेटिक धर्म मानते हैं कि भगवान् ने छ: दिनों या छ: युगों में सृष्टि बनाई थी और सातवें दिन या सातवें युग में विश्राम किया। इस दिन को भगवान् का दिन कह सकते हैं। इस चीज का अनुसरण करते हुए इन धर्मों के आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुष्यों के लिए भी कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए।

उन्होंने निश्चय किया कि मनुष्य छ: दिन अपना काम-काज करे, अपने व्यक्तिगत कामों में लगा रहे और अहं के द्वारा प्रेरित काम करता रहे, परन्तु सातवें दिन को भगवान् के लिए अलग करके रख दिया जाय। उस दिन अपनी इच्छाओं, कामनाओं और अपने अहं को भूलकर मनुष्य अपने अंदर डुबकी लगाए या अपने ऊपर देखे। उस दिन वह अपने आपको पूरी तरह से अपने स्त्रोत के साथ, अपने बनाने वालों के साथ, एक कर दे, उसकी चेतना प्राप्त करे और उससे नयी शक्ति का अर्जन करे।

   यह था इन छुट्टियों के आरम्भ का रहस्य। पर इन लोगों ने अपने धर्म की सच्ची सीख को भुला दिया है और इन्होंने यही समझ रखा है कि जीवन क उद्देश्य है खाना-पीना   

 और मौज करना। काम भी करते हैं तो इसी उद्देश्य से और छुट्टी मनाते हैं तो इसी उद्देश्य से। मुझे दीख रहा है कि मानव-जाति इसी गर्त में गिरती जा रही है। वह मौज को, स्वच्छन्दता को ही सबकुछ मान बैठी है, परन्तु आर्य लोग जीते हैं तो भगवान् के लिए और मरते हैं तो भी उसी के लिए। हमारा एक-एक काम, चाहे वह पढ़ना हो या लकड़िया बीनना, वेद-पाठ हो या पानी भरना, भगवान् की सेवा के लिए किया जाता है।

क्या हम जगज्जननी की सेवा को भार मान सकते हैं? स्वयं भगवान् ने कहा है कि जीवन के रहते काम से छुट्टी पाना असम्भव है। काम से छुट्टी पाने का एक ही उपाय है और वह है निर्वाण। पर उसे प्राप्त करने के लिए भी तो सबसे बढ़कर मेहनत करनी पड़ती है। जरा सोचा, भगवान् अगर एक क्षण के लिए छुट्टी ले लें तो! ...हम भी तो उन्हीं का काम कर रहे हैं।

सब ब्रह्मचारी चुप थे। एक शांति का वातावरण छा गया था। अब छुट्टियॉँ कौन मांगता?.


काशिनाथ त्रिवेदी

 

१ : : विश्ववास

         

           हज़रत मुहम्मद अपने साथी अबूबकर को लेकर मक्का से रवाना हुए। उन्हें पकड़ने के लिए लिए कुरैशों ने उनका पीछा किया। यह देखकर मुहम्मद साहब और अबूबकर रास्ते में एक गुफा में छिप गये।

          कुरैशों को गुफा के आसपास चक्कर लगाते और खोजते देखकर अबूबकर बोले, हजरत, हम सिर्फ दो लोग यहां घुसे हैं और दुश्मन तो बहुत हैं। अगर वे गुफा के सामने ही आकर खड़े हो गये तो क्या होगा?

हज़रत मुहम्मद इत्मीनान के साथ बोले, होगा क्या? यहां हम दो ही नहीं, तीसरा अल्लाह भी है।

२ : : दोष-दर्शन

         

                बगदाद में मारुक नाम के एक साधु पुरुष रहते थे। एक बार एक भाई उनके साथ उनकी झोपड़ी में मेहमान के नाते ठहरे। नमाज का वक्त होने पर वे भाई उठे और एक कोने में जाकर नमाज पढ़ने लगे।

          नमाज पढ़ चुकने के बाद उन भाई का पता चला कि उन्होंने गलती से काबा की मस्जिद की तरफ मुंह करने के बदले दूसरी दिशा में मुंह करके नमाज पढ़ी थी। उन्होंने महात्मा मारुक से इसकी चर्चा की और पूछा, बाबा! आपने मेरी गलती सुधारी क्यों नहीं?

          मारुक साहब बोले, भैया, हम तो फकीर आदमी ठहरे। हम दूसरों के दोष नहीं देखते।

 

३ : : धर्म-ऋण

         

           एक बार सरदार वल्लभभाई पटेल कांग्रेस के लिए निधि-संग्रह के काम से रंगून गये। उस सयम जब-जब वे चीनियों के पास चन्दा उगाहने जाते, तब-तब चीनी लोग चन्दे की सूची में अपना कोई आंकड़ा चढ़ाते नहीं थे, बल्कि घर के अन्दर जाकर यथाशक्ति जो रकम उन्हें देनी होती, हाथों-हाथ दे दिया करते थे।

          चीनियों के इस व्यवहार को देखकर सरदार ने एक चीनी सज्जन से इसका कारण पूछा।

          उन चीनी सज्जन ने जवाब में कहा, हम इसे धर्म-ऋण कहते हैं। सूची में आंकड़ा चढ़ाने के बाद यदि उतनी रकम हाथ में न हुई, तो उसे चुकाने में जितने दिनों की देर होती  है, उतने दिन का ऋण ही हम पर चढ़ता हैं। धर्म-ऋण का यह पातक हम लोगों में सबसे बुरा माना जाता है। इसलिए हमें चन्दे में या कोष में कोई रकम देनी होती है, तो तुरन्त देकर इस ऋण से मुक्त होने का अनुभव करते हैं।

 

४ : : शब्द की शक्ति

         

           किसी समय उड़ीसा में लालाबाबू नाम के एक बहुत बड़े जमींदार रहते थे। वे अपना जीवन विलास में बिता रहे थे।

          एक बार वे अपनी जमींदारी के गांव से रात के समय घर वापस आ रहे थे। रास्ता चलते हुए उन्होंने सुना कि एक घर में एक लड़की अपने बूढ़े पिता से कह रही थी, बाबा, रात हुए बहुत देर हो गई है। आपने अभी तक दीया क्यों नहीं जलाया? अंधेरे में क्यों बैठे हुए हैं? ठहरिये, मैं दीया जलाए देती हूं।

          लड़की के ये शब्द उस रास्ते से गुजरने वाल लालाबाबू के कानों में पड़े। अचानक उनके दिल पर इन शब्दों का एक अलग ही असर हुआ। वे गम्भीर बन कर सोचने लगे, इस लड़की ने एक जबरदस्त सत्य कह डाला है। इसके ये शब्द मेरे बारे में भी उतने ही मौजू बैठते हैं। मेरी यह जवानी भोग-विलास में बीत जायगी। फिर बुढ़ापा आयगा। जीवन की संध्या के समय भी मेरे इस प्रकार के व्यवहार से मेरे दिल में ज्ञानरुपी दीपक प्रकट नहीं हो पायगा। क्या मेरी सारी जिन्दगी इस तरह अंधेरे में ही पूरी होगी?

          यों सोचते-सोचते वे अपने घर पहुंचे। बाद में तीस साल की भरी जवानी में उन्होंने सांसारिक जीवन से मुंह मोड़ लिया और वृन्दावन जाकर वहां भगवान की भाक्ति में अपने दिन बिताने लगे।

 

५ : : पीड़ पराई जाणे रे

         

           एक बार स्वामीनारायण सम्प्रदाय के स्वामी ब्रह्मानन्द को उनके ही एक गुरुभाई ने गुस्से में आकर बुरी तरह पीटा। इतना पीटा कि पीटते-पीटते उनके हाथ की छड़ी भी टूट गई।

          इसी बीच उधर से जा रहे एक भाई ने उन्हें छुड़ाया और पूछा, स्वामीजी! आपको बहुत चोट तो नहीं लगी?

          स्वामी ब्रह्मानन्द बोले, भाई, मुझ पर जो चोटें पड़ी हैं, उनकी मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं है, लेकिन मुझे दु:ख इस बात का है कि मेरे गुरुभाई की छड़ी टूट गई

 

 

o साध्वी चेतना

 

मांस का मूल्य 

 

      मगध के सम्राट् श्रेणिक ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा कि देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?

मंत्रि-परिषद् के तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गये। चावल, गेहूं, आदि पदार्थ बहुत मेहनत बाद मिलते हैं और वह भी तब, जबकि प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता। शिकार का शौक होने के कारण एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है।

उसने मुस्कराते हुए कहा, राजन्! सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ तो मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।

सबने इसका समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री अभय कुमार चुप रहा।

श्रेणिक ने उससे कहा, तुम चुप क्यों हो? बोलो, तुम्हारा इस बारे में क्या विचार है?

प्रधान मंत्री ने कहा, यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है,एकदम गलत है। मैं अपने विचार आपके सामने कल रखूंगा।

रात होने पर प्रधानमंत्री सीधा उस सामन्त के महल पर पहुंचा, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था। उसने द्वारा खटखटाया।

सामन्त ने द्वार खोला। इतनी रात गये प्रधान मंत्री को देखकर वह घबरा गया। उसका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा।

प्रधान मंत्री ने कहा, शाम को महाराज श्रेणिक बीमार हो गए हैं। उनकी हालत खराब है। राजवैद्य ने कहा है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते हैं। आप महाराज के विश्ववास-पात्र सामन्त हैं। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूं। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहें, ले सकते हैं। कहें तो लाख स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं।

यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राएं भी किस काम आयंगी!

उसने प्रधान मंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजौरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त हृदय का मांस खरीद लें।

मुद्राएं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी से सभी सामन्तों के द्वार पर पहुंचा और सबसे राजा के लिए हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ। सबने अपने बचाव के लिए प्रधानमंत्री को एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख स्वर्ण मुद्राएं दे दीं। इस प्रकार एक करोड़ से ऊपर स्वर्ण मुद्राएं लेकर प्रधान मंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुंच गया और राजा-सभी की बैठक में उसने राजा के सामने एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं रख दीं।

          श्रेणिक ने पूछा, ये मुद्राएं किसलिए हैं?

          प्रधानमंत्री ने सारा हाल कह सुनाया। फिर बोला, अपने बचाव के लिए सामन्तों ने ये मुद्राएं दी हैं। अब आप सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है?

          जीवन का मूल्य अनन्त है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सबको अपनी जान प्यारी होती है।l

 

 

oमनोहर लाल

 

१ : : सहन-शक्ति

         

        उस समय की बात है जब महात्मा बुद्ध जंगली भैंसे की योनि भोग रहे थे। वह एकदम शान्त प्रकृति के थे।  जंगल में एक नटखट बन्दर उनका हमजोली था। उसे महात्मा बुद्ध को तंग करने में बड़ा आनन्द आता। वह कभी उनकी पीठ पर सवार हो जातातो कभी पूंछ से लटक कर झूलता, कभी कान में; कभी कान में ऊंगली डाल देता तो कभी नथुने में। कई बार गर्दन पर बैठकर दोनों हाथों से सींग पकड़ कर झकझोरता। महात्मा बुद्ध उससे कुछ न कहते।

         

 

                 उनकी सहनशक्ति और वानर की धृष्टता देखकर देवताओं नेउनसे निवेदन किया, शान्ति के अग्रदूत, इस नटखट बंदर को दंड दीजिये। यह आपको बहुत सताता है और आप चुपचाप सह लेते हैं!

          वह बोले, मैं इसे सींग से चीर सकता हूं, माथे की टक्कर से पीस सकता हूं; परन्तु में ऐसा नहीं करता, न करुंगा। अपने से बलशाली के अत्याचार को सहने की

शक्ति तो सभी जुटा लेते हैं, परन्तु सच्ची सहनशक्ति तो अपने से बलहीन की बातों को सहन करने में है।

 

२ : : मध्यम मार्ग

         

        रोग, जरा और मृत्यु पर विजय पाने के लिए महात्मा बुद्ध कहां-कहां नहीं भटके! अंत में गया के पास वन में घोर तप करके शरीर सुखा लिया, पर लक्ष्य से डिगे नहीं। अस्थिपंजर हो जाने पर भी उन्होंने कठोर-साधना के कष्ट नहीं माना। सांसारिक प्रलोभन उन्हें रिझा न सके।  एक दिन जब वे तपस्या में लीन थे तो पास के रास्ते कुछ गयिकाएं गुजरीं, जो अपनी भाषा में गीत गा रही थीं। गीत का भाव था-सितार के तारों को ढील मत दो। स्वर ठीक नहीं निकलता; पर उन्हें इतना कसो भी नहीं कि टूट जायं।बस, महात्मा बुद्ध को मार्ग मिल गया। उन्होंने घोर तपस्या, निद्रा, भोजन आदि के त्याग को तिलांजलि दे, नियमित निद्रा और संयमित भोजन को अधिक व्यावहारिक समझा।

          फिर वह जीवन भर मध्यम मार्ग पर ही चलते रहे।l

 

 


 

 

 

oविक्रमकुमार जैन

 

१ : : सुख की खोज

         

         एक राजा था। वह बड़ा निडर और उदार था। उसकी प्रजा उसे बहुत चाहती थी।

         एक दिन राजा एकान्त में बैठा कुछ सोच रहा था। सोचते-सोचते वह गहराई में उतर गया। उसे लगा, इतनी सारी सुख-निधि पाकर भी आदमी दु:खी है तो क्यों?

          एक दिन उसने अपने दरबारियों को आज्ञा दी कि सबसे सुखी और तन्दुरुस्त आदमी को पकड़ कर लाओ। दरबारी और प्रजा हैरान। वे राजा की आज्ञा का पालन करने के लिए बहुतेरे भटके, पर राजा जैसा चाहता था, वैसा एक भी आदमी नहीं मिला। उन्होंने दरबार में आकर राजा से कहा, हे राजन्, इस धरती पर पूर्ण सुखी और स्वस्थ कोई भी इंसान नहीं है। किसी को कोई दु:ख है तो किसी को कोई।

          सुनकर राजा स्तब्ध रह गया। फिर बोला, तो क्या मेरे राज्य में सब दुखी और बीमार हैं? इस धरती पर कोई भी सुख नहीं है। नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। जाओ, एक बार फिर खोजो।

          दरबारी क्या करते! फिर निकले। घूमते-घूमते वे एक निर्जन और वीरान जंगल से गुजरे। देखा, एक संत ध्यान में लीन हैं। वे वहीं जाकर बैठे गये। ध्यान खुलने पर संत ने पूछा, तुम लोग कौन हो? कहां से आये हो?

          दरबारियों ने कहा, हम राजा की आज्ञा मानकर सबसे सुखी और स्वस्थ प्राणी को खोजने निकले हैं।

          सुनकर संत बोले, क्या तुम्हें अबतक ऐसा कोई आदमी मिला है?

          दरबारियों ने कहा, नहीं। इसके बाद साधु उनके साथ राजा के पास गये। राजा संत को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। संत ने कहा, राजन्! तुम व्यर्थ ही परेशान होते हो। क्या तुम्हें पता है कि मनुष्य के हृदय में ही सुख का अपार भंडार भरा पड़ा है? जरा टटोलो तो अपने को। सुख की खोज में जैसे कस्तूरी मृग इधर-उधर भटकता है, वैसे ही तुम भटक रहे हो। सुख के लिए बाहर नहीं, भीतर देखना होता है।

          राजा का हृदय पुलक उठा। उसकी समस्या हल हो गई।

 

 

 

 २ : : चूहा और गिलहरी     

 

      एक था चूहा, एक थी गिलहारी। चूहा शरारती था। दिन भर चीं-चीं करता हुआ मौज उड़ता। गिलहरी भोली थी। टी-टी करती हुई इधर-उधर घूमा करती।

संयोग से एक बार दोनों का आमना-सामना हो गया।

अपनी प्रशंसा करते हुए चूहे ने कहा, मुझे लोग मूषकराज कहते हैं और गणेशजी की सवारी के रुप मे रूप में खूब जानते हैं। मेरे पैने-पैने हथियार सरीखे दांत लोहे के पिंजरे तो क्या, किसी भी चीज को काट सकते हैं।

          मासूम-सी गिलहरी को यह सुनकर बड़ा बुरा लगा। बोली, भाई, तुम दूसरों का नुकसान करते हो, फायदा नहीं। यदि अपने दॉँतों पर तुम्हें इतना गर्व है, तो इनसे कोई नक्काशी क्यों नहीं करते? इनका उपयोग करो, तो जानू! जहां तक मेरा सवाल है, मुझमें तुम सरीखा कोई गुण नहीं है। मेरे बदन पर तीन धारियां देख रहे हो न, बस ये ही मेरी खास चीज है। जो दाना-पानी मिल जाता है, उसका कचरा साफ करके संतोष से खा लेती हूं।

          चूहा बोला, तुम्हारी तीन धारियों की विशेषता क्या है?

          गिलहरी बोली, वाह! तुम्हें पता नहीं? आसपास दो काली धारियां हैं, उनके बीच में एक सफेद है। इनका मतलब है कि कठिनाइयों की परतों के बीच से ही असली सुख झांकता है। दो काली अंधेरी रातों के बीच में ही एक सुनहरा दिन छिपा रहता है।

          सुनकर चूहा लज्जित होकर वहां से भाग गया। ·

 

 

 


 

 

oश्रीकृष्ण

 

१ : : ज्ञान-सिद्धि

         

     एक महात्मा थे। उनका एक जवान शिष्य था। उस शिष्य को अपने ज्ञान और विद्वत्ता पर बड़ा घमंड था।महात्मा उसके इस घमंड को दूर करना चाहते थे। इसलिए एक दिन सवेरे ही वह उसे साथ लेकर यात्रा पर निकले।

धूप चढ़ते दोनों एक खेत में पहुंचे। वहां एक किसान क्यारियां सींच रहा था। गुरु-शिष्य काफी देर तक वहां खड़े रहे, किन्तु किसान ने आंख उठाकर उनकी ओर देख तक नहीं। वह लगन से अपने काम में लगा रहा।

दोपहर ढलेवे एक नगर में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक लुहार लोहा पीट रहा है। पसीने से उसकी सारी देह तर-बतर हो रही थी। गुरु-शिष्य काफी देर वहां खड़े रहे, लेकिन लुहार को गर्दन ऊपर उठानी की भी फुरसत नहीं थी।

गुरु-शिष्य फिर आगे बढ़े और दिन-छिपे के समय वे एक सराय में पहुंचे। वे थकान से चूर हो गये। वहां तीन मुसाफिर और बैठे थे। वे भी पूरी तरह थके हुए दिखाई पड़ते  थे।

गुरु ने शिष्य से कहा, तुमने देखा, पाने के लिए कितना देना होता है। किसान तन-मन लुटाता है, तब कहीं खेत फलता है। लुहार शरीर सुख देता है तब धातु सिद्ध होती है। यात्री अपने को चुकाकर मंजिल पाता है। तुमने ज्ञान के पोथे-पर-पोथे रट डाले, लेकिन कितना ज्ञान पा लिया? ज्ञान तो कमाई है। कमाकर उसे पाया जाता है। कर्मों से ज्ञान की क्यारियां सींचो। जीवन की आं में ज्ञान की धातु सिद्ध करो। मार्ग में अपने को चुकाकर ज्ञान की मंजिल पाओ। ज्ञान किसी का सगा नहीं है। जो उसे कमाता है, उसी के पास वह जाता है।

 


 

 

२ : : शैतान का दाहिना हाथ

         

          जब शैतान का मन अपने आप से ऊब गया, तो उसने संन्यास लेने का निश्चय किया। तब उसने अपने गुलामों को बेचना शुरु कर दिया। बुराई, झूठ, ईर्ष्या, निरुत्साह, दर्प-सब पंक्ति बांधकर खड़े हो गये। शैतान के भक्त आते गए और उन्हें पहचानकर एक-एक को खरीदते गये। पर एक ओर एक बहुत ही भौंड़ा और कुरुप गुलाम खड़ा था, जिसे कोई पहचान नहीं पा रहा था। आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसका मूल्य दूसरे सभी गुलामों से बढ़कर था। अन्त में साहस करके एक खरीददार नेशैतान से पूछा यह महाशय कौन हैं?

ओह, यह! शैतान मुस्कराया, यह मेरा सबसे प्रिय और वफादार गुलाम है। बहुत थोड़े ही लोग जानते हैं कि यह मेरा दाहिना हाथ हैं। मैं इसके सहारे बड़ी आसानी से लोगों को अपने शिकंजे में कस लेता हूं; उन्हें एक-दूसरे के खून का प्यास बना देता हूं। क्यों, नहीं पहचाना अभी भी? शैतान अट्टहास कर उठा, फिर बोला, यह फूट है, फूट!

 

३ : : अपने की चोट

 

एक सुनार था। उसकी दुकान से मिली हुई एक लुहार की दुकान थी। सुनार जब काम करता, उसकी दुकान से बहुत ही धीमी आवाज होती, पर जब लुहार काम करतातो उसकी दुकान से कानो के पर्दे फाड़ देने वाली आवाज सुनाई पड़ती।

एक दिन सोने का एक कण छिटककर लुहार की दुकान में आ गिरा। वहां उसकी भेंट लोहे के एक कण के साथ हुई।

सोने के कण ने लोहे के कण से कहा, भाई, हम दोनों का दु:ख समान है। हम दोनों को एक ही तरह आग में तपाया जाता है और समान रुप से हथौड़े की चोटें सहनी पड़ती हैं। मैं यह सब यातना चुपचाप सहन करता हूं, पर तुम...?

तुम्हारा कहना सही है, लेकिन तुम पर चोट करने वाला लोहे का हथौड़ा तुम्हारा सगा भाई नहीं है, पर वह मेरा सगा भाई है। लोहे के कण ने दु:ख भरे स्वर में उत्तर दिया। फिर कुछ रुककर बोला, पराये की अपेक्षा अपनों के द्वारा गई चोट की पीड़ा अधिक असह्म होती है।

 

 

४ : : विधाता की अनोखी रचना

 

उस समय की बात है, जब कि पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म नहीं हुआ था।

आखिर विधाता ने चन्द्रमा की मुस्कान, गुलाब की सुगन्ध और अमृत की माधुरी को एक साथ मिलाया और मिट्टी के घरौदों में भर दिया। सब घरौंदे लगे चहकने और महकने।

देवदूतों ने विधाता की इस नई अनोखी रचना को देखा तो आश्चर्य से चकित रह गये। उन्होंने ब्रह्मा से पूछा, यह क्या है?

विधाता ने बताया, इसका नाम है जीवन। यह मेरी सर्वश्रेष्ठ कृति है।

विधाता की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि एक देवदूत बीच ही में बोला पड़ा, क्षमा कीजिये प्रभु! लेकिन यह समझ में नहीं आया कि आने इसे मिट्टी का तन क्यों दिया? मिट्टी तो तुच्छ-से-तुच्छ है, जड़ से भी जड़ है। मिट्टी न लेकर आपने कोई धातु क्यों नहीं ली? सोना नहीं तो लोहा ही ले लेते।

विधाता के होठों पर एक मोहक मुस्कान खेल उठी। बोले, वत्स! यही तो जीवन का रहस्य है। मिट्टी के शरीर में मैंने संसार का सारा सुख-सौंदर्य, सारा वैभव, उड़ेल दिया है। जड़ में आनन्द का चैतन्य फूंक दिया है। इसका जैसा चाहो, उपयोग कर लो। शरीर को महत्ता देने वाला मिट्टी की जड़ता भोगेगा; जो इससे ऊपर उठेगा, उसे आनन्द के परत-परत-परत मिलेंगे। लेकिन ये सब मिट्टी के घरौंदे की तरह क्षणिक हैं। इसलिए जीवन का प्रत्येक क्षण मूल्यवान् है। जो जितना सोयेगा, उतना ही खोयेगा। तुम मिट्टी के ही अवगुणों को देखते हो, गुणों को नहीं। मिट्टी में ही अकुंर फूटते हैं। मैंने शरीर का कर्मक्षेत्र बनाया है, उसमें कर्मों के अंकुर जमेंगे। इस भांति मैंने मनुष्य को खेती उसके अपने ही हाथ में दे दी है। जैसा वह बोये, वैसा ही काटे।l


 

 

oनागेश्वर सिंह शशीन्द्र

 

१ : : मीठी सजा

 

मिथिला के प्राचीन राजवंशी में नरहन (सरसा) राज्य का भी बड़ा महत्व था। वहां का राजा बड़ा उदार और विद्वान् था। प्रजा को वह सन्तान की तरह चाहता था। प्रजा भी उसे पिता की तरह मानती थी; किन्तु उसकी राजधानी में एक गरीब आदमी था, जो हर घड़ी राजा की आलोचना करता। राजा इसे जानकर भी चुप रहता।

एक दिन राजा ने इस बारे में गहराई से सोचा। फिर अपने एक निजी सेवक को उसके यहां भेजा। साथ में गेहूं के आटे की बोरियां, साबुन का बक्सा, गुड़ की चक्कियां भी बैलगाड़ी पर लाद कर भेजीं।

इन चीजों को पाकर वह आदमी गर्व से फूल उठा। हो न हो, राजा ने ये चीजें उससे डर कर भेजी हैं। सामान को घर में रखकर वह अभिमान के साथ राजगुरु के पास पहुंचा। सारी बात बताकर बोला, गुरुदेव! आप मुझसे हमेशा चुप रहने को कहा करते थे। यह देखिये, राजा मुझसे डरता है।

राजगुरु ने उत्तर दिया, बलिहारी है तुम्हारी समझ की! अरे! राजा ने इन उपहारों के द्वारा तुम्हे यह समझाने की कोशिश की है कि हर समय गालियों का ही प्रयोग नहीं करो, कभी-कभी अच्छी बातें भी सोच करो। आटे की ये बोरियां तुम्हारे खाली पेट के लिए हैं, साबुन तुम्हारे शरीर का मैल धोने के लिए है और गुड़ की ये चक्कियां तुम्हारी कड़ुवी जबान को मीठी बनाने के लिए हैं।

 

२ : : साधु और दीया

 

मिथिला में एक बड़े ही धर्मात्मा एवं ज्ञानी राजा थे। राजमहल में भारी ठाट-बाट होते हुए भी वे उसमें लिप्त नहीं थे। उनके पास एक बार एक साधु उनसे मिलने आया। राजा ने साधु का हृदय से सम्मान किया और दरबार में आने का कारण पूछा।

साधु ने कहा, राजन्! सुना है कि इतने बड़े महल मं इतने ठाट-बाट के बीच रहते हुए भी आप इनसे अलग रहते हैं। मैंने वर्षों हिमालय में तपस्या की, अनेक तीर्थों की

 

 

यात्राएं कीं, फिर भी ऐसा न बन सका। आपने राजमहल में रह कर ही यह बात कैसे साध ली?

 राजा ने उत्तर दिया, महात्माजी! आप असमय में आये हैं। यह मेरा काम का समय है। आपके सवाल का जवाब मैं थोड़ी देर बाद दूंगा। तबतक आप इस दीये को लेकर मेरे महल को पूरा देख आइये। एक बात का ध्यान रखिये, दीया बुझने न पावे, नहीं तो आप रास्ता भूल जायंगे।

साधु दीया लेकर राजमहल को देखने चल दिया। कई घन्टे बाद वह लौटा तो राजा ने मुस्करा कर पूछा, कहिये, स्वामीजी! मेरा महल कैसा लगा?

साधु बोला, राजन्! मैं आपके महल के हर भाग में गया। सबकुछ देखा, फिर भी वह अनदेखा रह गया।

राजा ने पूछा, क्यों?

साधु ने कहा, राजन्! मेरा सारा ध्यान इस दीये पर लगा रहा कि कहीं यह बुझ न जाय!

राजा ने उत्तर दिया, महात्माजी! इतना बड़ा राज चलाते हुए मेरे साथ भीयही बात है। मेरा सारा ध्यान परमात्मा पर लगा रहता है। चलते-फिरते, उठते-बैठते एक ही बात सामने रहती है कि सबकुछ उसी का है और मैं जो कुछ कर रहा हूं, उसी के लिए कर रहा हूं।

साधु राजा के चरणों में सिर झुका कर चला गया।l

 

 


 

 

oरामनारायण उपाध्याय

 

१ : : स्नेह का बोझ नहीं होता

 

एक आदमी अपने सिर पर अपने खाने के लिए अनाज की गठरी ले कर जा रहा था। दूसरे आदमी के सिर पर उससे चार गुनी बड़ी गठरी था। लेकिन पहला आदमी गठरी के बोझ से दबा जा रहा था, जबकि दूसरा मस्ती से गीत गाता जा रहा था।

पहले ने दूसरे से पूछा, क्योंजी! क्या तुम्हें बोझ नहीं लगता?

दूसरा बोला, तुम्हारे सिर पर अपने खाने का बोझ है, मेरे सिर पर परिवार को खिलाकर खाने का। स्वार्थ के बोझ से स्नेह का बोझ हल्का होता है।

 

२ : : बड़ा कौन?

 

एक बार लक्ष्मी को घमण्ड हो गया कि मैं सबसे बड़ी हूं। इस बात की परीक्षा के लिए वह धरती पर पहुंची। वहां एक मूर्तिकार के यहां अन्य देवी-देवताओं की मूर्ति के साथ लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की मूर्ति भी बिक्री के लिए रखी थी। लक्ष्मी नेसरस्वती की मूर्ति की

 

ओर इशारा करते हुए पूछा, इसकी क्या कीमत है?

मूर्तिकार ने कहा, बहनजी! इसकी कीमत पांच रुपया है।

लक्ष्मी बहुत प्रसन्न हुई। उसने सोचा, दुनिया में सरस्वती की कीमत सिर्फ पांच रुपया है। फिर उसने दुर्गा की मूर्ति की ओर इशारा करते हुए पूछा, इसकी क्या कीमत है?

मूर्तिकार ने कहा, बहनजी, इसकी कीमत भी पांच रुपया है।

लक्ष्मी ने सोचा, दुनिया में सरस्वती और दुर्गा एक ही भाव बिकती हैं। फिर उसने स्वयं अपनी, लक्ष्मी मूर्ति, की ओर इशारा करते हुए पूछा, इसकी क्या कीमत है?

 

 

 

 

मूर्तिकार ने कहा, बहनजी, इसे कोई नहीं खरीदता। जो भी हमारे यहां से सरस्वती और दुर्गा की मूर्ति खरीदते हैं, उनको हम यह मूर्ति भेंट में देते हैं। कारण, लोग लक्ष्मी देकर ही सरस्वती और दुर्गा खरीदते हैं। लक्ष्मी देकर कोई लक्ष्मी नहीं खरीदता।

 

३ : : चरित्र की सीढ़ियां

 

एक आदमी अपने हाथ में दो ऊंचे डण्डे लेकर एक महल की ऊपरी मंजिल पर चढ़ने का प्रयास कर रहा था।

दूसरे आदमी ने देखा तो पूछा, तुम यह क्या कर रहे हो?

वह बोला, मेरे पास सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन के दो डंडे हैं। मैं इनके सहारे इस महल की ऊपरी मंजिल पर पहुंचना चाहता हूं।

पहले ने कहा, मैंने बड़ी मेहनत से इन्हें प्राप्त किया है। क्या सारा श्रम व्यर्थ जायगा?

दूसरे आदमी ने कहा, तुम्हारा श्रम व्यर्थ नहीं जाएगा, यदि तुम सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन के इन दो खड़े डंडों में सम्यक् चरित्र की आड़ी सीढ़ियां लगा सको।

सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन के दो खड़े डंडों में सम्यक् चरित्र की आड़ी सीढ़ियां लगाने से एक ऐसी नसैनी तैयार हो जाती है, जिस पर एक-एक कदम उठाकर आदमी अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है।l

 


 

 

 

oशिवनाथसिंह शाण्डिल्य

(उर्दू भाषा के महान् कवि महात्मा शेख सादी पैदल यात्रा किया करते थे। उनकी यात्रा के कुछ बोधप्रद प्रसंग यहां दिये जाते हैं। -लेखक)

 

१ : : खुदा का अहसान

एक बार मैं सफर करता हुआ गांव की एक मस्जिद में रुका। मेरे पैरों में कॉँटे लग गये थे। पैसे की तंगी के कारण जूता नहीं खरीद सका था। जब मैं कॉँटे निकाल रहा था तो मुझे बड़ा कष्ट और मानसिक वेदना हो रही थी। सोचता था कि मेरी भी क्या जिन्दगी है कि मुझे जूता तक मअस्सर नहीं हो सका। इतने में ही एक मुसाफिर वहॉँ आया। उसके एक टांग नहीं थी और वह बगल में लकड़ी लगाकर चल रहा था।

उसको देखते ही मैं अपनी तकलीफ भूल गया। मैंने भगवान् को धन्यवाद  

दिया कि ऐ खुदा, तूने मुझे जूते नहीं दिये, किन्तु पैर तो दिये। इसके तो पैर भी नहीं है!

 

२ : : इंसानियत

 

एक बार मैं शहर दमिश्क में रह रहा था। वहां बहुत जोर का अकाल पड़ा। आकाश से एक बूंद पानी न टपका। खेत सूख गये। नदियॉँ सूख गईं। पेड़ फकीरों की तरह कंगाल हो गये। ऐसी दशा हो गई कि न तो पहाड़ों पर सब्जी दिखाई देती थी, न बागों में

 

 

 

हरी डालियां। खेत टिड्डियों ने चाट डाले थे। आदमी टिड्डियों को खा गये थे। इन्हीं दिनों मेरा एक मित्र मुझसे मिलने आया। उसकी हड्डियों पर केवल खाल बाकी रह गई थी। उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह बड़ा धनवान और अमीर आदमी था। उसके पास सवारी के लिए बीसों घोड़े और रहने के लिए आलीशान हवेलियां थीं। पचासों नौकर थे। मैंने उससे पूछा, तुम्हारी यह हालत कैसे हो गई?

वह बोला, आपको क्या इस देश का हाल मालूम नहीं है? कितनी मुसीबतें और आफतें आई हुई हैं। कितना भयंकर अकाल पड़ा हुआ है। हजारों आदमी भूख से मर गये हैं। मैंने कहा, तुमको इस मुसीबत से क्या मतलब? तुम इतने अमीर हो कि अगर ऐसे सैकड़ों अकाल भी पड़े तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

वह बोला,आपका कहना सच है, मगर इंसान वही है, जो दूसरों के दु:ख को अपना दु:ख समझे। जब मैं लोगों को फाका करते देखता था तो मेरे मुंह में खाने का एक टुकड़ा नहीं उतरता था। इसलिए मैंने अपनी सारी जायदाद और सामान बेचकर पैसा गरीबों और फकीरों में बांट दिया। शेखसादी, इस बात को याद रखो कि उस तन्दुरुस्त आदमी का सुख नष्ट हो जाता है, जिसके पास बीमार बैठा हो।

 

 

३ : : सबसे बड़ा धर्म

 

बसरा शहर में एक बड़ा ईश्वर-भक्त और सत्यवादी मनुष्य रहता है। मैं जब वहां पहुंचा तो उसके दर्शनों के लिए गया। कुछ और यात्री भी मेरे साथ थे।

उस व्यक्ति ने हममें से प्रत्येक का हाथ चूमा और बड़े आदर के साथ सबको बैठा कर तब खुद बैठा। किन्तु उसने हमसे रोटी की बात नहीं पूछी।

वह रात भर माला जपता रहा, सोया नहीं और हमें भूख के कारण नींद नहीं आई। सुबह हुई तो फिर वह हमारे हाथ चूमने लगा।

हमारे साथ एक मुंहफट यात्री भी था। वह उस ईश्वर-भक्त पुरुष से बोला, अगर तुम हमें रात को रोटी खिला देते और स्वयं रात भर आराम से सोते तो तुम्हें भजन करने से भी अधिक पुण्य मिलता, क्योंकि भूखे मनुष्य को रोटी खिलाने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।l


 

 

o चौधरी

 

१ : : पेट सबका बराबर

 

मुसलमानों के द्वितीय खलीफा हजरत उमर बड़े दयालु और ईमानदार थे। इस्लाम जगत में उनका स्थान सर्वोपरि था, किन्तु शाही खजाने से वह केवल उतना ही वेतन लेते थे, जितना कि साधारण कर्मचारियों को मिलता था। वह घर के बुने कपड़े पहनते थे और चटाई पर सोते थे।

लोगों ने कहा, जब आपका पद इतना बड़ा है तो उसके अनुसार आपवेतन क्यों नहीं लेते?

खलीफा ने जवाब दिया, भले ही मेरा पद बड़ा हो, किन्तु पेट तो सभी मनुष्यों का बराबर होता है।

 

२ : : ईमानदारी और न्यायप्रियता

 

एक बार उमर एक सभी में बोल रहे थे। बीच में उन्होंने लोगों से पूछा, अगर मैं तुमको कोई हुक्म दूं तो क्या तुम उसको अंजाम दोगे?

उपस्थित जनता में से एक बुढ़िया ने कहा, हम आपका हुक्म नहीं मानेंगे।

हजरत उमर ने पूछा, क्यों?

बुढ़िया ने जवाब दिया, मेरे खाविन्द का चोगा सिर्फ घुटने तक है और आप इतना लम्बा चोगा पहने हुए हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि आप शाही मालखाने से अपने लिए ज्यादा कपड़ा लेते हैं।

हजरत उमर ने कहा, इस बारे में मेरा बेटा बतायेगा।

हजरत उमर का लड़का उस सभा में मौजूद था। उसने आगे बढ़कर कहा, मैंने अपने हिस्से का कपड़ा अपने वालिद को दे दिया था। इससे उनका चोगा लम्बा बन सका। खलीफा की इस ईमानदारी और न्यायप्रियता से सभी लोग स्तब्ध रह गये।

 


 

 

३ : : बड़े पद के लिए योग्यता

 

एक बार हजरत उमर ने एक आदमी को शाम देश का गवर्नर बनाया और उसे नियुक्ति-पत्र दिया। वह आदमी नियुक्ति-पत्र लेकर अभी गया नहीं था कि इतने में पड़ोस का एक बालक वहां आ गया। हजरत उमर ने उसे गोद में उठा लिया और अपने बच्चे की तरह प्यार करने लगे।

             उस आदमी ने जब यह देखा तो कहने लगा, ;हजरत! मेरे आठ बालक हैं, लेकिन मैंने उन्हें आज तक गोद में नहीं लिया!

ये शब्द सुनते ही हजरत उमर के चेहरे का रंग बदल गया। उन्होंने उस आदमी से कहा, मैंने तुम्हें नौकरी का जो परवाना दिया है, जरा उसे दिखाओ।

उस आदमी ने नियुक्ति-पत्र हजरत उमर के हाथ पर रख दिया तो उमर ने उसे फाड़ कर फेंक दिया और उस आदमी से कहा, जब बालकों के लिए तुम्हारे दिल में प्यार नहीं है तो तुम बड़ों के साथ क्या मोहब्बत करोगे? तुम इस लायक नहीं हो कि तुम्हें गवर्नर बनाया जाय।l

 

 

oकन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

 

१ : : आहुति

 

अंगार ने ऋषि की आहुतियों का घी पिया और हव्य के रस चाटे। कुछ देर बाद वह ठंडा होकर राख हो गया और कूड़े की ढेरी पर फेंक दिया गया।

ऋषि ने जब दूसरे दिन नये अंगार पर आहुति अर्पित की तो राख ने पुकारा, क्या आज मुझसे रुष्ट हो, महाराज?

ऋषि की करुणा जाग उठी और उन्होंने पात्र को पोंछकर एक आहुति उसे भी अर्पित् कर दी।

तीसरे दिन ऋषि जब नये अंगार पर आहुति देने लगे तो राख ने गुर्राकर कहा, अरे! तू वहां क्या कर रहा है? अपनी आहुतियॉँ यहां क्यों नहीं लाता?

 

 

ऋषि ने शान्त स्वर में उत्तर दिया, ठीक है राख! आज मैं तेरे अपमान का पात्र हूं, क्योंकि कल मैंने मूर्खतावश तुझ अपात्र में आहुति अर्पित करने का पाप किया था।

 

 

२ : : जैसी करनी वैसी भरनी

 

एक हवेली के तीन हिस्सों में तीन परिवार रहते थे। एक तरफ कुन्दनलाल, बीच में रहमानी, दूसरी तरफ जसवन्त सिंह।

उस दिन रात में कोई बारह बजे रहमानी के मुन्ने पप्पू के पेट में जाने क्या हुआकि वह दोहरा हो गया और जोर-जोर से रोने लगा। मॉँ ने बहलाया, बाप ने कन्धों लिया, आपा ने सहलाया, पर वह चुप न हुआ।

             

       उसके रोने से कुन्दनलाल की नींद खुल गई। करवट बदलते हुए उसने सोचा-कम्बख्त ने नींद ही खराब कर दी। अरे, तकलीफ है, तो उसे सहो, दूसरों को तो तकलीफ में मत डालो। और कुन्दनलाल फिर खर्राटे भरेन लगा।

नींद जसवन्त सिंह की भी उचट गई। उसने करवट बदलते हुए सोचा-बच्चा कष्ट में है। हे भगवान, तू उसकी ऑंखों में मीठी नींद दे कि मैं भी सो सकूं।

हवेली के सामने बुढ़िया राम दुलारी अपनी कोठरी में रहती थी। उसकी भी नींद उखड़ गई। उसने लाठी उठाई और खिड़की के नीचे आवाज देकर कहा, ओ बहू! ले, यह हींग ले और इसे जरा से पानी में घोलकर मुन्ने की टूंडी पर लेप कर दे। बच्चा है। कच्चा-पक्का हो ही जाता है, फिकर की कोई बात नहीं, अभी सो जायेगा।

बुढ़िया सन्तुष्ट थी, कुन्दन लाल बुरे सपने देख रहा था। जसवन्त सिंह थका-थका-सा था ओर रहमानी मुन्ने की टूंडी पर हींग का लेप कर रहा था।

 

३ : : बुराई और भलाई

उभरती बुराई ने दबती-सी अच्छाई से कहा, कुछ भी हो, लाख मतभेद हों, है तो तू मेरी सहेली हो। मुझे अपने सामने तेरा दबना अच्छा नहीं लगता। आ, अलग खड़ी न हो, मुझमें मिल जा; मैं तुझे भी अपने साथ बढ़ा लूंगी, समाज में फैला लूंगी।

 

 

 

अच्छाई ने शांति से उत्तर दिया, तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद, पर रहना मुझे तुमसे अलग ही है।

क्यों? आश्चर्यभरी अप्रसन्नता से बुराई ने पूछा।

बात यह है कि मैं तुमसे मिल जाऊं तो फिर मैं कहां रहूंगी, तब तो तुम-ही-तुम होगी सब जगह। अच्छाई ने और भी शान्त होकर उत्तर दिया।

गुस्से से उफन कर बुराई ने अपनी झाड़ी अच्छाई के चारों ओर फैला दी और फुंकार कर कहा, ले, भोग मेरे निमन्त्रण को ठुकराने की सजा! अब पड़ी रह मिट्टी में मुंह दुबकाये! दुनिया में तेरे फैलने की अब कोई राह नहीं।

अच्छाई ने अपने अंकुर की आंख से जिधर झांका, उसे बुराई की झाड़ी तेज कांटा, तने हुए भाले की तरह, सामने दिखाई दिया। सचमुच आगे कदम सरकाने की भी कहीं जगह न थी।

बुराई का अट्टहास चारों ओर गूंज गया। परिस्थितियां निश्चय ही प्रतिकूल थीं। फिर भी पूरे आत्म्-विश्वास से अच्छाई ने कहा, तुम्हारा फैलाव आजकल बहत व्यापक है, बहन! जानती हूं इस फैलाव से अपने अस्तित्व को बचाकर मुझे व्यक्तित्व की ओर बढ़ने में पूरा संघर्ष करना पड़ेगा, पर तुम यह न भूलना कि कांटे-कांटे के बीच से गुजर कर जब मैं तुम्हारी झाड़ी के ऊपर पहुंचूंगी तो मेरे फूलों की महक चारों ओर फैल जायगी और यह जानना भी कठिन होगा कि तुम हो कहॉँ।

व्यंग्य की शेखी से इठलाकर बुराई से कहा, दिल के बहलाने को यह ख्याल अच्छा है।

गहरे सन्तुलन में अपने को समेटकर अच्छाई ने कहा, तुम हंसना चाहो, तो जरुर हंसो, मुझे आपत्ति नहीं, पर जीवन के इस सत्य को हंसी के मुलम्मे से झुठलाया नहीं जा सकता कि तुम्हारे फैलाव की भी एक सीमा है; क्योंकि उस सीमा तक तुम्ळारे पहुंचते-न-पहुंचते तुम्हारे सहायकों और अंगरक्षकों का ही दम घुटने लगता है। इसके विरुद्ध मेरे फैलाव की कोई सीमा ही प्रकृति ने नहीं बांधी, बुराई बहन।

बुराई गंभीर हो गई और उसे लगा कि उसके कॉँटों की शक्ति आप-ही-आप पहले से कम होती जा रही है और अच्छाई का अंकुर तेजी से बढ़ रहा है।l

 


 

 

oप्रकाश हितैषी शास्त्री

 

१ . . एकत्व में सुख, द्वन्द्व में दु:ख

 

मिथिला नरेश नमि दाह-ज्वर से पीड़ित थे। उन्हें भारी कष्ट था। भांति-भांति के उपचार किये जा रहे थे। रानियॉँ अपने हाथों से बावना चंदनर घिस-घिस कर लेप तैयार कर रही थीं।

जब मन किसी पीड़ा से संतप्त होता है तो व्यक्ति को कुछ ही नहीं सुहाता। एक दिन रानियां चंदन घिस रही थीं। इससे उनके हाथों के कंगन खनखना रहे थे। उनकी ध्वनि बड़ी मधुर थी, लेकिन राजा का कष्ट इतना बढ़ा हुआ था कि वह ध्वनि उन्हें अखरी। उन्होंने पूछा, यह कर्कश ध्वनि कहां से आ रही है?

मंत्री ने जवाब दिया, राजन, रानियॉँ चंदन घिस रही हैं। हाथों के हिलने से कंगन आपस में टकरा रहे हैं।

रानियों ने राजा की भावना समझकर कंगन उतार दिये। बस, एक-एक रहने दिया।

जब आवाज बंद हो गई तो थोड़ी देर बाद राजा ने शंकित होकर पूछा, क्या चंदन घिसना बंद कर दिया गया है?

मंत्री ने कहा, नहीं महाराज, आपकी इच्छानुसार रानियों ने अपने हाथों से कंगों को उतार दिया है। सौभाग्य के चिन्ह के रुप में एक-एक कंगन रहने दिया है। राजन, आप चिन्ता मत कीजिये, लेपन बराबर तैयार किया जा रहा है।

इतना सुनकर अचानक राजा को बोध हुआ, ओह, मैं कितने अज्ञान में जी रहा हूं। जहॉँ दो हैं, वहीं संघर्ष है, वही पीड़ा है। मैं इस द्वन्द्व में क्यों जीता रहा हूं? जीवन में यह अशांति और मन की यह भ्रांति, एकत्व की साधना से हटकर दूसरे से लगाव के कारण ही हुई है।

राजा का ज्ञान-सूर्य उचित हो गया। उसने सोचा-दाह-ज्वर के उपशांत होते ही चेतना की एकत्व साधना के लिए मैं प्रयाण कर जाऊंगा।

इसके बाद अपनी भोग-शक्ति को योग-साधना में रुपान्तरित करने के लिए राजा नये मार्ग पर चल पड़ा।

 

 

२ : : माया में डूबा जीवन

 

हमारे गांव में एक फकीर घूमा करता था, उसकी सफेद लम्बी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डण्डा रहता था। चिथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढाला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर अपने साथ माया की एक गठरी लिये रहता था। वह बार-बार उस गठरी को

खोलता था। उसमें उसने बड़े जतन से रंगीन कागज लपेटकर रक्खे थे। जिसगली से वह निकलता, उसमें रंगीन कागज दीखता तो बड़ी सावधानी से वह उसे उठा लेता, सिकड़नों पर हाथ फेरता और उसकी गड्डी बना कर रख लेता।

फिर वह किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहा करता, ये मेरे प्राण हैं। कभी कहता, ये रुपये हैं। इनसे गांव के गिर रहे अपने किले का पुनर्निर्माण कराऊंगा। फिर अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, उस किले पर हमारा झंडा फहरायेगा और मैं राजा बनूंगा।

गांव के बालक उसे घेरकर खड़े हो जाते और हँसा करते। वयस्क और वृद्ध लोग उसकी खिल्ली उड़ाते। कहते, पागल है, तभी तो रंगीन रद्दी कागजों से किले बनवाने की बात कर रहा है।

एक दिन उसे देखकर मुझे अनुभूति हुई कि फकीर जो कुछ करता था और कहता था, वह अपने लिए नहीं, हमारे लिए था। फकीर को भला किले और राजा बनने से क्या लेना-देना था! लेकिन वह हम संसार के प्राणियों से मानो कहता था, तुम सब पागल हो, जो माया में लिपटे तरह-तरह के किले बनाते और राजा बनने के सपने देखते रहते हो? वह फकीर गली-गली, घर-घर, घूमकर कहता था कि इस जीवन में कागज के किले मत बनाओ, उस किले के राजा मत बनो, जीवन के मर्म को समझो।

ऐसे फकीर हमारे गांव में ही नहीं, हर गांव में और हर शहर में घूमते हैं, पर हमने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है और कान बंद कर लिये हैं। इसी से न हम उन्हें देख पाते हैं, न उसकी आवाज सुन पाते हैं। वास्तव में पागल वे नहीं, हम हैं।l

 


 

 

oमुकुलभाई कलार्थी

 

: : १ उदार दृष्टि

 

पुराने जमाने की बात है। ग्रीस देश के स्पार्टा राज्य में पिडार्टस नाम का एक नौजवान रहता था। वह पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान बन गया था।

एक बार उसे पता चला कि राज्य में तीन सौ जगहें खाली हैं। वह नौकरी की तलाश में था ही। इसलिए उसने तुरन्त अर्जी भेज दी।

लेकिन जब नतीजा निकला तो मालूम पड़ा कि पिडार्टस को नौकरी के लिए नहीं चुना गया था।

जब उसके मित्रों को इसका पता लगा तो उन्होंने सोचा कि इससे पिडार्टस बहुत दुखी हो गया होगा, इसलिए वे सब मिलकर उसे आश्वासन देने उसके घर पहुंचे।

     पिडार्टस ने मित्रों की बात सुनी और हंसते-हंसते कहने लगा, मित्रों, इसमें दुखी होने की क्या बात है? मुझे तो यह जानकर आनन्द हुआ है कि अपने राज्य में मुझसे अधिक योग्यता वाले तीन सौ मनुष्य हैं।

 

२ : : मित्र की कसौटी

 

दमिश्क शहर में मुस्तफा नाम का एक धनवान रहता था। उसके सेयद नाम का एक लड़का था। मुस्तफा सैयद का व्यापार-व्यवसाय में कुशल बनाने का प्रयत्न करता रहता था। लेकिन सैयद की दोस्ती एक बुरे आदमी के साथ हो गई थी और उस आदमी के कहे अनुसार ही वह चलता था।

मुस्तफा को इससे दु:ख होता था। उसे इस बात की चिन्ता सताने लगी कि यदि यही हाल रहा, तो उसके गुजर जाने पर सैयद अपने दोस्त की सोहब्बत में पड़कर सारा पैसा बरबाद कर देगा।

एक दिन उसने एक तरकीब सोची। मुस्तफा ने सैयद को बुलाया और कहा, बेटा सैयद, हम दोनों को कुछ दिनों के लिए तिजारत के काम से बगदार जाना होगा। इन

 

 

 

दिनों दमिश्क में चोरों का त्रास बहुत ही बढ़ गया है। इसलिए हमें सोचना यह है कि हम अपने कीमती जेवरों की पेटी किसे सौंपकर जायं?

            सैयद बोला, मेरे दोस्त के जैसा ईमानदार आदमी दमिश्क में दूसरा कोई नहीं है। इसलिए अगर आप यह पेटी उन्हें सौंप देंगे तो कोई हर्ज न होगा। पेटी बन्द रहेगी, इसलिए फिकर की वैसे भी कोई वजह नहीं।                                                                

मुस्तफा ने कहा, सैयद, मुझे भी तुझ पर भरोसा है। ले, यह पेटी, तू अपने दोस्त को जरुर सौंप आ।

वैसा ही किया गया। फिर बाप-बेटे बगदाद के लिए रवाना हुए। वहां कुछ दिन रहकर और व्यापार-संबंधी जरुरी काम निपटाकर वे घर वापस आ गये।

घर आने पर मुस्तफा ने कहा, बेटा, तू जा और अपनी वह पेटी अपने दोस्त के घर से ले आ।

लेकिन कुछ ही देर बाद सैयद लाल-पीला होता हुआ आया और गुस्से-भरी आवाज में मुस्तफा से कहने लगा, वावाजान, आपने मेरे दोस्त की बड़ी तौहीन की है। उसने मुझसे कहा कि आपने उस पेटी में कीमती जेवरों के बदले पत्थर भर रखे थे। इस तरह उसकी लौहीन करके आपने मेरी ही तौहीन की है।

मुस्तफा ने धीरज के साथ कहा; लेकिन बेटा, तेरे दोस्त को पता कैसे चला कि पेटी में पत्थर भरे थे? तू तो जानता ही है कि पेटी को तीन-तीन तालों से बन्द किया गया था। इसका मतलब तो यही हुआ कि तेरे दोस्त ने किसी तरकीब से उन तालों को खोल कर चुप-चाप पेटी के अन्दर का सामान देखा और फिर ताले ज्यों-के-त्यों बन्द कर दिये। अच्छा हुआ कि मैंने पेटी में कीमती जेवर रखने के बदले पत्थर रख दिए थे, नहीं तो भरोसे का वह दोस्त पता नहीं, क्या-क्या कर डालता! बोल, जो मैंने किया, सो ठीक ही किया न?

बेचारा सैयद क्या बोलता! वह नीचा सिर करके कहना लगा, बाबाजान, मुझसे बड़ी भूल हुई। आजतक मैं ऐसे दोस्तों पर यकीन रखकर चलता था। अब मैं कभी इन लोगों की अपना दोस्त नहीं बनाऊंगा।

 

 

 

 

 

 

३ : : मातृ-भक्ति का प्रभाव

किसी समय चीन देश में होलीन नाम का एक नौजवान रहता था। वह अपनी मां का परमभक्त था। बूढ़ी मां की सेवा-चाकरी बड़े भक्ति-भाव से किया करता था। मां को किस समय, किस चीज की जरुरत पड़ेगी, इसका वह पूरा ख्याल रखता था।

एक बार हो-लीन के घर में एक चोर घुसा। जिस कमरे में हो-लीन सोचा था, उस कमरे में चोर के घुसते ही हो-लीन की नीद खुल गई। लेकिन चोर ताकतवर था। उसने हो-लीन को एक खम्बे से कसकर बांध दिया।

पास ही के कमरे में मां सोई थी। इस सारे झमेले में कहीं मां की नींद न खुल जाय, इस ख्याल से हो-लीन चुप ही रहा।

चोर ने उस कमरे में पड़ी एक पेटी खोली औरवह उसमें में सामान निकालने लगा। उसने हो-लीन का रेशमी कोट निकाला और एक चादर बिछाकर उस पर रख दिया। इस तरह वह एक के बाद एक सामान निकालता और रखता गया। हो-लीन सबकुछ चुपचाप देखता रहा।

इस बीच चोर ने पेटी में से ताम्बे काएक तसला बाहर निकला। उसे देखकर हो-लीन का गला भर आया और उसने कहा, भाईसाहब, मेहरबानी करके यह तसला यहीं रहने दीजिये। मुझे सुबह ही अपनी मां के लिए पतला दलिया बनाना होगा और मां को देना होगा। तसला न रहा तो बूढ़ी मां को दलिए के बिना रह जाना पड़ेगा।

यह सुनते ही चोर के हाथ से तसला छूट गया। उसने भर्राई हुई आवाज में कहा, मेरे प्यारे मित्र,तसला ही नही, बल्कि तेरा सारा सामान मैं यहीं छोड़े जा रहा हूं। तेरे जैसा मातृ-भक्त के घर से मैं तनिक-सी भी कोई चीज ले जाऊंगा तो मेरा सत्यानाश हो जायगा। तेरे घर की कोई चीज मुझे हजम नहीं होगी।

यों कहकर और हो-लीन को बन्धन से मुक्त करके वह चोर धीमे पैरों वहां से चला गया।

 


 

 

४ : : मनुष्य की आयु

 

बहुत पुराने समय की बात है। एक दिन भगवान का दरबार लगा था। भगवान सभी प्राणियों की आयु निश्चित करने बैठे थे।

इसी बीच मनुष्य, गधा, कुत्ता और उल्लू चारों एक साथ भगवान के सामने हाजिर हुए। भगवान ने चारों को चालीस साल की आयु दे दी।

मनुष्य को भगवान को यह निर्णय पसन्द नहीं आया। उसे बुना लगा। उसने सोचा, मैं सब प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता हूं, फिर भी मेरी उमर गधे, कुत्ते और उल्लू जैसे तुच्छ प्राणियों के बराबर ही क्यों? सचमुच भगवान के घर भी अन्धेर-ही-अन्धेर है।

लेकिन उस समय वह कुछ बोला नहीं। कुछ दिनों के बाद मनुष्य भगवान के पास पहुंचा और कहने लगा, भगवान, मुझे आपके सामने अपनी एक शिकायत रखनी है। उस दिन आपने मेरी, गधे की और उल्लू की आयु एक-सी निश्चित करके मनुष्य-प्राणी के साथी भारी अन्याय किया है। क्या हमारे और इन तुच्छ प्राणियों के बीच कोई अन्तर ही नहीं है? अतएव मेरी आपसे नम्र विनती है कि आप इस विषय मे शान्तिपूर्वक विचार करें।

भगवान ने कहा, अच्छी बात है।

इस पर भगवान ने गधे, कुत्ते और उल्लू से पूछ कर उनके जीवन में से बीस-बीस वर्ष कम करके मनुष्य की आयु में साठ वर्ष बढ़ा दिये और उसकी आयु सौ वर्ष की कर दी। लेकिन नतीजा क्या हुआ? मनुष्य अपनी जिन्दगी शुरु के चालीस साल आदमी की तरह पूरे जोश और उत्साह के साथ बिताता है। उसके बाद बीस साल उसे गधे की आयु के मिलते हैं। इन बीस सालों के बीच उसे लड़के-लड़की, बहू, नाती-पोती आदि के रुप में सारी गृहस्थी का भार गधे की तरह ढोना पड़ता है। फिर कुत्ते की आयु में से प्राप्त बीस साल मिलते हैं। इन बीस सालों में घर के दरवाजे के पास ही उसकी खटिया रहती है। वह उस पर बैठा-बैठा घर वालों को और बाहर वालों को आते-जाते देखता है और कुत्ते की तरह उन्हें घूरता रहता है। अस्सी साल पूरे होने पर मनुष्य के नसीब में उल्लू की आयु के बीस बरस लिखे रहते हैं।

इसलिए वह दिन में उल्लू की तरह खुली आंख लिये अंधा-सा बैठा रहता है और रात को उल्लू की भांति बिना सोये ही जागता पड़ा रहता है।

मनुष्य में इन तीनों प्राणियों के ये गुण आ जाने के बाद उसे इन तीनों दीन प्राणियों के प्रति-घृणा सी पैदा हो गई है।

गधे पर उसकी ताकत से ज्यादा बोझ लादकर और उसे डण्डे से पीट-पीटकर मनुष्य गधे की अपनी जिन्दगी के बैर का बदला लेता है। कुत्ते को दुत्कार-दुत्कार कर वह

 

 

कुत्ते की अपनी जिनदगी के बैर का बदला लेता है और उल्लू का तो मुंह देखना भी उसे नहीं सुहाता।

 

५ : : संत की महिमा

 

तुर्किस्तान और ईरान के बीच कई सालों से लड़ाई चलती चली आ रही थी। तुर्किस्तान को बार-बार हार का मुंह देखना पड़ रहा था।

किन्तु एक दिन संयोगवश ईरान के प्रसिद्ध सन्त पुरुष अत्तारी साहब तुर्कों के हाथ में पड़ गये। तुर्क तो ईरानियों से खार खाये हुए हो थे। इसलिए वे अत्तारी साहब को मार डालने के लिए तैयार हो गये।

ईरान के कुछ लोगों को इसका पता चला। इस पर एक भले धनवान पुरुष ने अत्तारी साहब के वजन के बराबर हीरे देने की तैयारी दिखाई और मांग की कि सन्त पुरुष को छोड़ दिया जाय, लेकिन तुर्क नहीं माने।

जब ईरान के बादशाह को इसबात की खबर लगी तो वे खुद तुर्किस्तान के सुलतान के सामने हाजिर हुए और बोले, मेरे राज्य के लिए आपकी न जाने कितनी पीढ़ियां हमसे लड़ती आ रही हैं, फिर भी आप हमसे हमारा राज्य छीन नहीं सके हैं, लेकिन आज मैं आपसे

यह कहन आया हूं कि आप हमसे राज्य ले लीजिए और हमारे अत्तारी साहब को हमें

वापस सौंप दीजिये। धन नाशवान है, राज्य भी नाशवान है; किन्तु सन्त तो सदा अमर हैं। अत्तारी साहब को खोकर ईरान कलंकित नहीं होना चाहता।

 

६ : : सच्चा मूल्य

 

पुराने जमाने की बात है। मिस्त्र देश के राजा पर देवता प्रसन्न हुए और बोले, यह तलवार लो और दुनिया को फतह करो।

राजा ने पूछा, भगवान, दुनिया को फतह करके मैं क्या पाऊंगा?

देवता ने कहा, यह पारसमणि लो और खूब धन प्राप्त करो।

राजा ने पूछा, भगवान, धन प्राप्त करके मैं क्या पाऊंगा?

 

 

 

देवता बोले, तो लो, मैं तुम्हें स्वर्ग की यह अप्सरा देता हूं।

राजा ने पूछा, भगवान! इस अप्सरा को प्राप्त करके मैं कौन-सी सिद्धि पाऊंगा?

देवता ने कहा, तब तुम फूल का यह पौधा ले लो। यह जहां भी रहेगा, वहां जड़ वेतन, शत्रु-मित्र, सबको अपनी सुगंध से सुवासित करेगा।

राजा ने सोचा, तलवार का पानी एक दिन उतरने ही वाला है, धन का दुरुपयोग भी हो सकता है, स्त्री कारुप भी एक दिन नष्ट होने वाला है, परन्तु फूल की सुगंध से तो देवता भी स्वर्ग से उतरकर धरती पर रहने लगते हैं।

यों सोचकर राजा ने देवता से कहा, भगवन, मुझे फूल का यह पौधा ही दीजिए।

 

 

oआचार्य तुलसी

 

१ : : नाणगमो मच्चुमुहस्स अत्थि

 

एक मछुआ समुद्र के तट पर बैठकर मछलियां पकड़ता और अपनी जीविका अर्जित करता। एक दिन उसके वणिक मित्र ने पूछा, मित्र, तुम्हारे पिता हैं? मछुआ बोला नहीं, उन्हें समुद्र की एक बड़ी मछली निगल गई। वणिक ने पूछा, और, तुम्हारा भाई? मछुवे ने उत्तर दिया, नौका डूब जाने के कारण वह समुद्र की गोद में समा गया। वणिक ने दादाजी और चाचाजी के सम्बन्ध में पूछा तो वे भी समुद्र में ही लीन हो गये थे।

वणिक ने कहा, मित्र! यह समुद्र तुम्हारे परिवार के विनाश का कारण है, इस बात को जानते हुए तुम यहां बराबर आते हो! क्या तुम्हें मरने का डर नहीं है?

मछुआ बोला, भाई, मौत का डर किसी को हो या न हो,पर वह तो आयगी ही। तुम्हारे घरवालों में से शायद इस समुद्र तक कोई नहीं आया होगा, फिर भी वे सब कैसे चले गये? मौत कब आती है और कैसे आती है, यह आज तक कोई भी नहीं समझ पाया। फिर मैं बेकार क्यों डरुं?

वणिक् के कानों में भगवान् महावीर की वाणी गूंजने लगी-नाणागमो मच्चुमुहस्स अतिथ। मृत्यु का आगमन किसी भी द्वार से हो सकता है।

 

 

वज्र-निर्मित मकान में रहकर भी व्यक्ति मौत की पकड़ से नहीं बच सकता। इसलिए क्षण-क्षण सजग रहने वाला व्यक्ति ही मौत के भय से ऊपर उठ सकता है।

 

२ : : महत्वकांक्षा की तलवार

 

एक महात्मा थे। उनकी तपस्या का यह प्रभाव था कि हिंसक हिंसा को भूल गये। शेर और बकरी, सर्प और मेढ़क अपने जन्मजात वैर को भूल गये। उनकी तपस्या से इन्द्र का आसन डोलने लगा। इन्द्र ने अपने ज्ञान से देखा कि अब उसका पद टिक नहीं सकेगा। वह

एक बटोही के रुप में महात्मा के आश्रम में आया। वहां के वातावरण को देखकर वह और अधिक चिन्तित हो उठा। महात्मा की तपस्या की यही स्थिति रही तो निश्चय ही उनका आसान अधिक दिन टिक नहीं सकेगा। उसने एक चाल चली। महात्मा के पास आकर वह बोला, महाराज, मैं जरा शहर में जा रहा हूं, अपनी तलवार आपके पास छोड़े जा रहा हूं। यदि आप इसका ध्यान रख सकें तो बड़ी कृपा होगी।

महात्मा ने सहज रुप ने इसे स्वीकार कर लिया। इन्द्र चला गया। महात्माजी ने घंटे दो घंटे तलवार का ध्यान रखा,पर इन्द्र नहीं आया। फिर तो दिन-पर-दिन और महीनों-पर-महीने बीतते चले गए। महात्माजी जहां भी जाते, तलवार को साथ ले जाते। आश्रम में भी आते तो उसका ध्यान रखते। उनकी साधना का क्रम भंग हो गया। जो मन भगवान में लीन रहता था, वह तलवार में लीन रहने लगा। इन्द्र का आसन डोलना बन्द हो गया। उधर आश्रम हाल-बेहाल हो गया। तपस्या के प्रभाव से जो हिंसक जीव हिंसा औश्र जन्मजात वैर को भूल बैठे थे, वे फिर एक-दूसरे को अपना दुश्मन मानने लगे। इन्द्र का जाल काम कर गया।

महत्वाकांक्षा की तलवार भी कुछ ऐसी ही होती है, जो व्यक्ति को अपने कर्तव्य से विमुख कर महत्व-प्राप्ति के लिए उचित-अनुचित हर कार्य में प्रवृत्त कर देती है।

३ : : स्वभाव का नतीजा

एक मच्छीमार जाल लेकर नदी पर गया। उसने नदी में जाल फैलाया और किनारे पर बैठ गया। सन्धया के समय जब उसने जाल निकाला तो जाल में मछलियों के

 

 

 

साथ केकड़े भी थे। उसके पास दो टोकरियां थीं। उसने एक टोकरी में मछलियां भर कर उस पर ढक्कन लगा दिया और दूसरी टोकरी में केकड़े भर कर उसे खुला छोड़ दिया।

नदी के किनारे पर टहलने के लिए आने वाले लोगों में से कुछ वयक्ति उन टोकरियों के पास रुक गये। उनमें से एक ने मछुवे को सम्बोधित करके कहा, ओ मछुवे, तुम कितने भोले हो! दिनभर मेहनत की और अब घर खाली हाथ लौटना है क्या?

मछुवे ने उनकी ओर देखकर पूछा, क्यों, क्या बात है?

वह आदमी बोला, तुमने इस टोकरी में केकड़े भरे हैं और इसे ढक्कन लगाये बिना ही किनारे पर छोड़ दिया है। देखो, केकड़े बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं। एक-एक कर वे सारे टोकरी से बाहर आकर नदी में चले जायंगी। फिर तुम क्या करोगे?

मछुवे ने कहा, आप चिन्ता मत कीजिए। मैं इन केकड़ों के स्वभाव से परिचित हूं। ये रात भर उछल-कूद मचाने पर भी इस टोकरी की कैद से छूट नहीं सकते, क्योंकि जो केकड़े ऊपर चढ़ने की कोशिश करेंगे, नीचे वाले केक़े उनकी टांगें खींचकर उन्हें फिर नीचे ले जायंगे। जबतक इस टोकरी में एक से ज्यादा केकड़े मौजदू हैं, केकड़ा बाहर नहीं जा सकेगा।

 

 

 

oमुनि नथमल

 

१ : : अपनी-अपनी दृष्टि

 

एक गुरु थे। उनके दो शिष्य थे। गुरु शिष्यों की परीक्षा लेना चाहते थे। उन्होंने एक शिष्य को बुलाकर पूछा, बताओ, जगत् कैसा है? तुम्हें वह कैसा लग रहा है? उसने कहा, बहुत बुरा है। सर्वत्र अंधकार-ही-अंधकार है। आप देखें, दिन एक होता है और रातें दो। दो रातों के बीच एक दिन। पहले रात थी। अंधेरा-ही-अंधेरा। फिर दिन आया। उजाला हुआ। फिर रात आ गई। अंधेरा छा गया। एक बार उजाला, दो बार अंधेरा। अंधेरा अधिक, प्रकाश कम। यह है जगत्।

 

 

 

गुरु ने दूसरे शिष्य से भी यह प्रश्न पूछा। उसने कहा, गुरुदेव! जगत् बहुत अच्छा है। प्रकाश ही प्रकाश है। रात बीती। उजाला हुआ। सर्वत्र प्रकाश फैल गया। प्रकाश आता है तो अंधकार दूर हो जाता है। वह सबकी मुंदी हुई आंखों को खोल देता है, यथार्थ को प्रकट कर देता है। जो अंधकार से आवृत था, उसे क्षण भर में अभिव्यक्ति दे देता है, अनावृत कर देता है। कितना सुन्दर और लुभावना है यह जगत् कि जिसमें ऐसा प्रकाश है। देखता हूं, दिन आया। बीता। रात आई। बीती फिर दिन आ गया। इस प्रकार दो दिनों के बीच एक रात। प्रकाश अधिक, अंधकार कम। दो बार उजाला, एक बार अंधेरा।

 

२ : : अति सर्वत्रा वर्जयेत्

 

एक अरबी कामिक तीर्थ नाम का सरोवर था। उसके तीर पर वंजुल नाम का वृक्ष था। उसकी शाखा पर चढ़कर कोई पशु-पक्षी सरोवर में गिरता, वह मनुष्य हो जाता। कोई मनुष्य वैसा करता तो वह देव हो जाता। कोई दूसरी बार फिर डुबकी लगाता तो मूल रुप में आ जाता।

एक दिन उस वृक्ष पर एक बंदर और बंदरिया बैठे थे। उसी समय एक मनुष्य और उसकी पत्नी आये। वृक्ष से झंपापात किया। सरोवर में गिरते ही वे दिव्य ज्योर्तिधर हो गये। बंदर-बंदरिया ने देखा तो वे भी सरोवर में कूद पड़े। वे तत्काल पुरुष-स्त्री होकर उससे निकले। बंदर ने अपनी पत्नी से कहा, हम एक बार फिर इसमें झंपापात करें, जिससे देव हो जायं।

पत्नी ने कहा, अति सर्वत्र वर्जयेत्।

पर बंदर ने पत्नी की बात नहीं मानी। वह पानी में कूद पड़ा। फिर बंदर हो गया। वह सुन्दर युवती राजा की रानी हो गई। बंदर को मदारी पकड़कर ले गया। राजा-रानी के सामने बंदर के खेल का आयोजन हुआ। बन्दर रानी को देख रो पड़ा। रानी ने कहा, मत रोओ, भूल का प्रायश्चित्त करो।

 

३ : : समझ का फेर

 

एक आदमी तालाब के किनारे घूमने जाया करता था। यह उसका रोज का काम था। पानी में उसकी परछाई पड़ती। तालाब में मछलियां थीं। एक मछली ने पानी में

 

 

पड़ी आदमी की परछाई को देखा। उसे दिखाई दिया कि सिर नीचे है, पैर ऊपर हैं। एक दिन देखा, दो दिन देखा, दस दिन देखा। उसकी धारणा दृढ़ हो गई। उसने जान लिया कि आदमी वह होता है, जिसका सिर नीचे और पैर ऊपर होते हैं।

एक दिन वह आदमी तालाब के किनारे-किनारे घूम रहा था। मछली पानी की सतह पर आई। उसने आदमी को देखा। उसका सिर ऊपर है, पैर नीचे। उसने सोचा शायद आदमी शीर्षासन कर रहा है, नहीं तो आदमी ऐसा नहीं हो सकता। आदमी वह होता है, जिसका सिर नीचे और पैर ऊपर होते हैं। आज मैं देख रही हूं कि इसका सिर ऊपर है और पैर नीचे। अवश्य ही यह कोई उल्टी क्रिया कर रहा है। शीर्षासन कर रहा है। उसकी धारणा मजबूत हो गई।l

 

 

oआदित्स प्रचण्डिया दीति

 

१ : : साधना और सिद्धि

 

हस्तिनापुर के जंगल-प्रदेश में दो साधक अपनी नैत्यिक साधन में लीन थे। उध्र से एक देवर्षि का प्रकट होना हुआ। देवर्षि को देखते ही दोनों साधक बोले उठे, परमात्मन्! आप देवलोक जा रहे हैं क्या? आप से प्रार्थना है कि लौटते समय प्रभु से पूछिये कि हमारी मुक्ति कब होगी?

यह सुनकर देवर्षि वहां से चले गए। एक महीने में उपरान्त देवर्षि वहां फिर प्रकट हुए। उन्होंने प्रथम साधक के पास जाकर प्रभु के सन्देश को सुनाते हुए कहा, प्रभु ने कहा है कि तुम्हारी मुक्ति पचास वर्ष बाद होगी।

यह सुनते ही वह साधक अवाक रह गया। उसने विचार किया कि मैंने दस वर्ष तक निरन्तर तपस्या की, कष्ट सहे, भूखा-प्यासा रहा, शरीर को क्षीण किया, फिर भी मुक्ति में पचास वर्ष! मैं इतने दिन और नहीं रुक सकता। निराश हो, वह साधना को छोड़ अपने परिवार में वापस जा मिला।

देवर्षि ने दूसरे साधक के पास जाकर कहा, प्रभु ने तुम्हारी मुक्ति के विषय में मुझे बताया है कि साठ वर्ष बाद होगी।

 

 

साधक ने सुनकर बड़े सन्तोष की श्वांस ली। उसने सोचा, जन्म-मरण की परम्परा

मुक्ति की एक सीमा तो हुई। मैंने एक दशाब्दि निरन्तर तपस्या की, कष्ट सहे शरीर को क्षीण किया। सन्तोष है, वह निष्फल नही गया।

इसके बाद वह और भी अधिक उत्साह से प्रभु के ध्यान में निमग्न हो गया।

सच्चे हृदय से की गई साधना कभी निष्फल नहीं होती।l

 

 

oभागीरथ कानोडिया

 

१ : : ईश्वर सदा और सर्वत्र है

 

गुरु नानक एक जगह से दूसरी जगह बराबर घूमते रहते थे-एक बार वे घूमते-फिरते मक्का जा पहुंचे। वहां पर वे मस्जिद में बेफिक्री के साथ सोये हुएथे। नमाज का वक्त था। संयोग से उनके पांव काबा की और थे। वहां के बड़े मुल्ला ने उनको इस तरह लेटे हुए देखा तो आग बबूला हो गया उनके पास जाकर उन्हें झकझोरते हुए बोला, अरे काफिर, तुम्हें कुछ पता भी है कि कैसे सोना चाहिए। खुदा की तरफ पांव किये सोये हो! बड़े बद तमीज हो। उठो और खुदा से अपने गुनाह के लिए माफी मांगो।

गुरु नानक ने हंसते हुए कहा, मौलवी साहब, आप बजा फरमाते हैं, मुझे सचमुच ही तमीज नहीं कि खुदा की ओर पांव करके नही सोना चाहिए। लेकिन मेहरबानी करके आप ही मेरे उस तरफ कर दीजिए, जिस तरफ खुदा न हो।

मौलवी नसीहत देने की बात भूलकर पानी-पानी हो गया।

२ : : धरती का रस

एक राजा था। एक बार वह सैर करने के लिए अपने शहर से बाहर गया। लौटते समय देर हो गई तो वह किसान के खेत में विश्राम करने के लिए ठहर गया। किसान की बूढ़ी मां खेत में मौजूद थी। राजा को प्यास लगी तो उसने बुढ़िया से कहा, बुढ़ियामाई, प्यास लगी है, थोड़ा-सा पानी दे।

बुढ़िया ने सोचा, एक पथिक अपने घर आया है, चिलचिलाती धूप का समय है, इसे सादा पानी क्या पिलाऊंगी! यह सोचकर उसने अपने खेत में से एक गन्ना तोड़ लिया और उसे निचोड़कर एक गिलास रस निकाल कर राजा के हाथ में दे दिया। रपाजा गन्ने का वह मीठा और शीतल रस पीकर तृप्त हो गया। उसने बुढ़िया से पूछा, माई! राजा तुमसे इस खेत का लगान क्या लेता है?

बुढ़िया बोली, इस देश का राजा बड़ा दयालु है। बहुत थोड़ा लगान लेता है। मेरे पास बीस बीघा खेत है। उसका साल में एक रुपया लेता है।

राजा के मन में लोभ आया। उसने सोचा, बीघा के खेत का लगान एक रुपया ही क्यों हो! उसने मन में तय किया कि शहर पहुंचकर इस बारे में मंत्री से सलाह करके गन्ने के खेतों का लगान बढ़ाना चाहिए। यह विचार करते-करते उसकी आंख लग गई।

कुछ देर बाद वह उठा तो उसने बुढ़ियामाई से फिर गन्ने का रस मांगा। बुढ़िया ने फिर एक गन्ना तोड़ और उसे निचोड़ा, लेकिन इस बार बहुम कम रस निकला। मुश्किल से चौथाई गिलास भरा होगा। बुढ़ियाने दूसरा गन्न तोड़ा। इस तरह चार-पांच गन्नों को निचोड़ा, तब जाकर गिलास भरा।

राजा यह दृश्य देख रहा था। उसने किसान की बूढ़ी मां से कहा, बुढ़ियामाई, पहली बार तो एक गन्ने से ही पूरा गिलास भर गया था, इस बार वही गिलास भरने के लिए चार-पांच गन्ने तोड़ने पड़े, इसका क्या कारण है?

किसान की मां बोली, यह बात तो मेरी समझ में भी नहीं आई। धरनती का रस तो तब सूखा करता है जब राजा की नीयत में फर्क, उसके मन में लोभ आ जाता है। बैठे-बैठे इतनी ही देर में ऐसा कैसे हो गया! फिर हमारे राजा तो प्रजा की भलाई करने वाली, न्यायी और धरम बुद्धिवाले हैं। उनके राज्य में धरती का रस कैसे सूख सकता है!

बुढ़िया का इतना कहना था कि राजा को चेत हो गया कि राजा का धर्म प्रजा का पोषण करना है, शोषण करना नहीं और उसने तत्काल लगान न बढ़ाने का निर्णय कर लिया।

३ : : मौलवी की आंखें खुलीं

एक स्त्री शाम को अभिसार के लिए अपने घर से निकली। वह इतनी मस्त हो रही थी कि उसके पांव सीधे नहीं पड़ रहे थे और न उसे अपना-पराया ही कुछ सूझ रहा था। रास्ते में मस्जिद के बड़े मौलवी अपना मुसल्ला बिछाये उस पर नमाज पढ़ रहे थे। अनजाने में वह नमाज के मुसल्ले को रौंदती हुई निकल गई। मौलवी को बड़ा गुस्सा आया, लेकिन वह उस समय कुछ बोले नहीं,क्योंकि बोलने से नाज में खलल पड़ने का डर था।

नमाज पूरी होने पर भी वह वहीं बैठे रहे और इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि वह स्त्री वापस आये तो उसे उलाहना दें, धमकावें और आगे के लिए नसीहत दें। कुछ देर बाद वह स्त्री वापस आई तो मौलवी ने कहा, भलीमानस, तुम्हें दीखता नहीं, मैं खुदा की इबादत कर रहा था और तुम मेरे नमाज के लिएबिछाए हुए मुसल्ले को रौंदती, उसे नापाक करके आगे बढ़ गईं! तुम्हारी आंखें फूटी तो नहीं है! जरा देखकर चला करो।

 

स्त्री ठहाका मारकर हँसी। बोली, मौलवी साहब, खता माफ हो, लेकिन मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं कि अगर आप खुदा की इबादत कर रहे थे तो आपको यह सूझकैसे पड़ा कि कौन आया था और कौन गया? इबादत करने वाला तो उसे कहते हैं, जिसके लिए यह कहा जा सके कि तन की कछु न सम्हार।

इतना सुनते ही मौलवी की आंखें खुल गईं।l

oमार्तण्ड उपाध्याय

१ : : मैं भी ऐसी रजाई ओढूंगा

जाड़े के दिनों में एक दिन गांधीजी आश्रम की गोशाला में पहुंचे। वहां गायों को सहलाया और बछड़ों को थपथपाया। तभी उनकी निगाह वहां पर खड़े एक गरीब लड़के पर गई। वह उसके पास पहुंचे और बोले, तू रात को यहीं सोता हैं?

लड़के ने जवाब दिया, हां बापू।

रात को ओढ़ता क्या है? बापू ने पूछा।

लड़के ने अपनी फटी चादर उन्हें दिखा दी। बापू उसी समय अपनी कुटिया में लौट आये। बा से दो पुरानी साड़ियॉँ मांगीं, कुछ पुराने अखबार तथा थोड़ी सी रुई मंगवाई। रुई को अपने हाथों से धुना। साड़ियों की खोल बनाई, अखबार के कागज और रुई भरकर एक रजाई तैयार कर दी। गोशाला से उस लड़के को बुलाया और उसे उसको देकर बोले, इसे ओढ़कर देखना कि रात में फिर ठंड लगती है या नहीं?

दूसरे दिन सुबह बापू जब गोशाला पहुंचे तो लड़का दौडृता हुआ आया और कहने लगा, बापू, कल रात मुझे बड़ी मीठी नींद आई।

बापू के चेहरे पर मुस्कराहट खेलने लगी। वह बोले, सच! तब तो मैं भी ऐसी ही रजाई ओढ़ूंगा।

२ : : बड़े का बड़प्पन

सुबह का समय था। सड़क पर लोग आ-जा रहे थे। दफ्तर जाने का समय था। एक बुढ़िया पटरी पर खड़ी थी और एक लड़की का गट्ठा उसके पास पड़ा था। हर आते-जाते आदमी से वह कहती, बेटा, तेरी बड़ी उमर हो, यह गट्ठा जरा मेरे सिर पर रख दे।

लेकिन किसी को भी फुसरत नहीं थी कि बुढ़िया की इतनी-सी मदद कर देता। लोग सुनी-अनसुनी करके चलते रहते। बुढ़िया की आंखों में अधीरता थी और समय बीतता जा रहा था। वह बाजार उठ जायगा। लकड़ी न बिकी तो उस दिन के खाने-पीने का क्या होगा? उसकी आंखों में आंसू छलछला आये।

 

 

इतने में एक वृद्ध सज्जन उधर से आते दिखाई दिये। सिर पर पगड़ी, बड़ी-बड़ी मूंछे, कंधे पर दुपट्टा, पांव में चप्पल, एक हाथ में बेंत। वह जरा पास आये तो बुढ़िया ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोला, बेटा, यह बोझ मेरे सिर के ऊपर उठा कर रख देख, बड़ा उपकार होगा तेरा।

वह सज्जन जरा रुके। बुढ़िया को नीचे से ऊपर तक देखा, झुककर गट्ठा उठाया और उसके सिर पर रख दिया। बुढ़िया आशीर्वाद देती चली गई।

ये सज्जन थे न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे-महाराष्ट्र के न्यायधीश और अनेक नेताओं के गुरु।

३ : : ममता से बड़ा कर्त्तव्य

एक बहुत बड़े वकील थे। उनके पास एक बार कत्ल का मुकदमा था। पर उन्हीं दिनों गांव में उनकी पत्नी बहुत बीमार हो गई। बीमारी गंभीर थी और वकीलसाहब पत्नी की तीमारदारी में लगे थे। तभी उस मुकदमे की सुनवाई की तारीख पड़ी। वकील साहब के लिए बड़ी असमंजस की स्थिति थी। इधर पत्नी मृत्युशैया पर पड़ी थी, उधर मुकदमे की पेशी पर शहर जाना जरुरी था। न जाने पर मुकदमा खारिज हो जाने और मुलजित को फॉँसी होने का अंदेशा था। वकीलसाहब की पत्नी बहुत समझदार और धीरजवान स्त्री थी। उसने अपने पति से कहा, आप मेरी चिंता न करें। पेशी पर शहर जरुर जायं। भगवान सब अच्छा करेंगे।

दुखी मन से वकील साहब शहर चले गये और अपने मुवक्किल की पैरवी के लिए समय पर अदालत में पहुंच गये।

मुकदमा पेश हुआ। सरकारी वकील ने अपनी दलीलें देकर यह साबित करने की कोशिश की कि मुल्जिम कसूरवार है और उसके लिए फॉँसी से कम सजा हो ही नहीं सकती।

वकीलसाहब बचाव-पक्ष की ओर से जवाब देने खड़े हुए। वह बहस कर ही रहे थे कि उनके सहकारी ने एक तार लाकर उनके हाथ में दिया। वकीलसाहब थोड़ी देर रुके। तार पढ़ा, पढ़कर अपने कोट की जेब में रख लिया और फिर बहस में लग गये। अपनी बहस से उनहोंने साबित किया कि उनका मुवक्कल निरपराध है और उसे रिहा कर दिया जाय। बहस के बाद मजिस्ट्रेट ने अपना फैसला सुनाया, अपराधी निरपराध है और उसे छोड़ दिया जाय।

वह मुवक्किल, उसके साथ और दूसरे वकील-मित्र अदालत के बाद बधाई देने वकीलसाहब के कमरे में आये। वकीलसाहब ने अपने साथियों को वह तार दिखाया, जो उन्हें अदालत में बहस के दौरान मिला था। मित्रों का तो तार पढ़ते ही खून सूख गया। तार

 

में लिखा था-आपकी पत्नी का देहान्त हो गया।

ये वकील थे सरदार वल्लभभाई पटेल-भारत की एकता के निर्माता।

४ : : होली की लकड़ी

पूना नगर में जोरों की महामारी फैली हुई थी। कोई घर ऐसा न बचा था, जहां से महामारी में कोई-न-कोई मरा न हो। चारो ओर हाहाकार मचा हुआ था।

लोकमान्य तिलक का बड़ा लड़का बीमार हुआ और कुछ ही दिनों की बीमारी के बाद चल बसा।

लोग मातमपुरसी के लिए आए, पर लोकमान्य निश्चित होकर लोगों से बातें करते रहे। लोगों को आश्चर्य हुआ। बड़ा लड़का चला गया और तिलक को कोई दु:ख नहीं! तब एक महाशय ने कहा, इतना बड़ा हादसा हो गया, बड़ा लड़का चला गया, और आप हैं कि इतने धीरज से बातें कर रहे हैं! गजब की सहनशक्ति है आपकी!

लोकमान्य तिलक सहजभाव से बोले, अरे भाई! इसमें धीरज और साहज की क्या बात है! जब होली आती है तो लोग हर घर से उसमें एक-एक लकड़ी डालते हैं न? अपने पूना में महामारी की होली ही तो आई है। सबके घर से लकड़ी दी गई तो मेरा घर क्यों खाली रहता? यहां से भी एक लकड़ी जानी चाहिए थी सो चली गई। इसमें दु:ख की बात क्या है?

५ : : बड़ों की विन्रमता

स्टेशन से उतरते ही एक हिन्दुस्तानी साहब ने कुली-कुली चिल्लाना शुरु किया। स्टेशन छोटा था। रात का वक्त् था। ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी। कुली दो-चार ही थे। वे और मुसाफिरों का सामान उठाने में लगे थे। साहब के पास सामान ज्यादा नहीं था, एक छोटा-सा हैंडबैग था।

इतने में सामने से धोती-कुरता पहने एक मामूली-सा आदमी आया और बोला, कहां ले जाना है आपका सामान?

बाहर घोड़ागाड़ी पर।

चलिये, मैं ले चलता हूं।

इतना कहकर उस व्यक्ति ने सामान उठाया, स्टेशन से बाहर ले जाकर घोड़ा-गाड़ी पर रखा और साहब को भी उसमें बिठा दिया।

साहब ने जेब से दो आने पैसे निकाले और उस व्यक्ति को देने लगे तो उसने कहा, मैं मजदूर नहीं हूं। मामूली अध्यापक हूं। आपको इतना-सा सामान उठाने में परेशान देखकर मैंने आपकी परेशानी दूर की। इसमें पैसे की क्या बात है?

 

 

इतना कह कर वह नमस्कार करके चला गया। वह थे प्रसिद्ध भारतरत्न ईश्वरचन्द्र विद्यासागर। ·

यशपाल जैन

१ : : तोड़ों नहीं, जोड़ो

अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था। वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता था और उनकी माला पहनता था। इसी से उसका यह नाम पड़ा था। आदमियों को लूट लेना, उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था। लोग उससे डरते थे। उसका नाम सुनते ही उनके प्राण सूख जाते थे।

संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वह वहां से चले जायं। अंगुलिमाल ऐसा डाकू है, जो किसी के आगे नहीं झुकता।

बुद्ध ने लोगों की बात सुनी,

पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। वह बेधड़क वहां घूमने लगे।

जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया। वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया।

बुद्ध ने उससे कहा, क्यों भाई, सामने के पेड़ से चार पत्ते तोड़ लाओगे?

अंगुलिमाल के लिएयह काम क्या मुश्किल था! वह दौड़ कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया।

 

 

 

बुद्ध ने कहा, अब एक काम करो। जहां से इन पत्तों को तोड़कर लाये हो, वहीं इन्हें लगा आओ।

अंगुलिमाल बोला, यह कैसे हो सकता?

बुद्ध ने कहा, भैया! जब जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?

इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और वह उस दिन से अपना धन्धा छोड़कर बुद्ध की शरण में आ गया।

२ : : हम सब चोर हैं

पुराने जमाने की बात है। एक आदमी को अपराध में पकड़ा गया। उसे राजा के सामने पेश किया गया। उन दिनों चोरो को फांसी की सजा दी जाती थी। अपराध सिद्ध हो जाने पर इस आदमी को भी फांसी की सजा मिली। राजा ने कहा, फांसी पर चढ़ने से पहले तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ।

आदमी ने कहा, राजन्! मैं मोती तैयार करना जानता हूं। मेरी इच्छा है कि मरने से पहले कुछ मोती तैयार कर जाऊं।

राजा ने उसकी बात मान ली और उसे कुछ दिन के लिए छोड़ दिया।

आदमी ने महल के पास एक खेत की जमीन को अच्छी तरह खोदा और समतल किया। राजा और उसके अधिकारी वहां मौजूद थे।

खेत ठीक होने पर उसने राजा से कहा, महाराज, मोती बोने के लिए जमीन तैयार है, लेकिन इसमें बीज वही डाल सकेगा, जिसने तन से या मन से कभी चोरी न क हो। मैं तो चोर हूं, इसलिए बीज डाल नहीं सकता।

राजा ने अपने अधिकारियों की ओर देखा। कोई भी उठकर नहीं आया।

तब राजा ने कहा, मैं तुम्हारी सजा माफ करता हूं। हम सब चोर हैं। चोर चोर को क्या दण्ड देगा!

३ : : भगवान के दरबार में सब बराबर

यूनान की बात है। वहॉँ एक बार बड़ी प्रदर्शनी लगी थी। उस प्रदर्शनी में अपोलो की बहुत ही सुन्दर मूर्ति थी। अपोलो को यूनानी अपना भगवान मानते हैं। वहॉँ राजा और रानी प्रदर्शनी देखने आये। उन्हें वह मूर्त्ति बड़ी अच्छी लगी। राजा ने पूछा, यह किसने बनाई है?

 

 

 

सब चुप। किसी को यह पता नहीं था कि उसका बनाने वाला कौन है। थोड़ी देर में ही सिपाही एक लड़की को पकड़ लाये। उन्होंने राजा से कहा, इसे पता है कि यह मूर्त्ति किसने बनाई है, पर यह बताती नहीं।

राजा ने उससे बार-बार पूछा, लेकिन उसने बताया नहीं। तब राजाने गुस्त में भरकर कहा, इसे जेल में डाल दो।

यह सुनते ही एक नौजवान सामने आया। राजा के पैरों में गिरकर बोला, आप मेरी बहन को छोड़ दीजिए। कसूर इसका नहीं मेरा है। मुझे दण्ड दीजिए। यह मूर्त्ति मैंने बनाई है।

राजा ने पूछा, तुम कौन हो?

उसने कहा, मैं गुलाम हूं।

उसके इतना कहते ही लोग उत्तेजित हो उठे। एक गुलाम की इतनी हिमाकत कि भगवान की मूर्त्ति बनावे! वे उसे मारने दौड़े।

राजा बड़ा कलाप्रेमी था। उसने लोगों को रोका और बोला, तुम लोग शान्त हो जाओ। देखते नहीं, मूर्त्ति क्या कह रही है? वह कहती है कि भगवान के दरबार में सब बराबर हैं।

राजा ने बड़े आदर से कलाकार को इनाम देकर विदा किया।

४ : : धीरज का फल

आस्ट्रेलिया की घटना हैं उसके पश्चिमी किनारे  छ: मील की दूरी पर एक जहाज चट्टान से टकरा गया। जहाज के सारे कर्मचारी बड़े तत्परता से सुरक्षा का काम करने लगे। जहाज में साढ़े चार सौ मुसाफिर थे। वे सब शान्ति से अपनी-अपनी जगह पर रहे।

इतने में जहाज से अधिकारी न हुक्म दिया, डोंगियों पर चढ़ो!

सारे मुसाफिरों ने सुरक्षा की पेटियां पहन लीं। उनमें एक आदमी नेत्रहीन था। वह अपने नौकर का हाथ थामे डेक पर आया। एक आदमी बीमार था। वह भी किसी का सहारा लेकर आया। सब लोगों ने एक ओर हटकर उनके लिए रास्ता कर दिया। अपनी-अपनी बारी से वे सब नावों में उतर गये। जहाज खाली हो गया। फिर उनके देखते-देखते वह समुद्र के पेट में समा गया।

डोंगी पर बैठी एक स्त्री गाने लगी :

प्यारे नाविक, बढ़ो किनारा पास है;

कर्म करो जबतक इस तन में सांस है

 

यह जीवन साहस का दूजा नाम है-

प्यारे नाविक, बढ़ो किनारा पास है।

मल्लाहों का हौसला बढ़ गया और सारे यात्री सकुशल किनारे पहुंच गये। यदि मुसाफिर घबरा गये होते और उन्होंने धीरज न रक्खा होता तो उनमें से बहुतों की जानें चली गई होतीं।

५ : : आखिरी दरवाजा

एक फकीर था। वह भीख मांगकर अपनी गुजर-बसर किया करता था। भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया। उसे आंखों से कम दीखने लगा।

एक दिन भीख मांगते हुए वह एक जगह पहुंचा और आवाज लगाई। किसी ने कहा, आगे बढ़ो! यह ऐसे आदमी का घर नहीं है, जो तुम्हें कुछ दे सके।

फकीर ने पूछा, भैया! आखिर इस घर का मालिक कौन है, जो किसी को कुछ नहीं देता?

उस आदमी ने कहा, अरे पागल! तू इतना भी नहीं जानता कि यह मस्जिद है? इस घर का मालिक खुद अल्लाह है।

फकीर के भीतर से तभी कोई बोल उठा-यह लो, आखिरी दरवाजा आ गया। इससे आगे अब और कोई दरवाजा कहां है?

इतना सुनकर फकीर ने कहा, अब मैं यहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगा। जो यहां से खाली हाथ लौट गये, उनके भरे हाथों की भी क्या कीमत है!

फकीर वहीं रुक गया और फिर कभी कहीं नहीं गया। कुछ समय बाद जब उस बूढ़े फकीर का अन्तिम क्षण आया तो लोगों ने देखा, वह उस समय भी मस्ती से नाच रहा था।

६ : : नशे का तमाशा

एक आदमी बड़ा शराबी था। शाम होते ही वह शराबघर में पहुंच जाता और खूब शराब पीता। एक दिन उसने इतनी चढ़ाई कि चलते समय उसे पूरा होश न रहा। वह साथ में लालटेन लाया था। उठाकर घर की ओर चल दिया। रास्ते में गहरा अंधेरा था। उसने लालटेन को इधर घुमाया, उधर घुमाया और जब उससे रोशनी न मिलती तो उसने जी भरकर उसे गालियां दीं।

घर आकर उसने लालटेन को बाहर पटक दिया और घर के अन्दर जाकर सो गया।

सवेरे जैसे ही उठा तो देखता क्या है कि शराबघर का आदमी उसकी लालटेन लिये चला आ रहा है। उसे बड़ा अचरज हुआ कि वह लालटेन उसके हाथ में कैसे है!

पास आकर वह बोला, महाशयजी, रात को आपने अच्छा तमाश किया! अपनी लालटेन छोड़ आये और हमारा पिंजड़ा उठा लाये। लीजिये, अपनी यह लालटेन और हमारा पिंजड़ा हमें दीजिये।

यह सुनकर उस आदमी को अपनी भूल मालूम हुई। नशे में रात को सचमुच वह लालटेन नहीं, पिंजड़ा उठा लाया था।

७ : : दान का आनन्द

एक राजा थे। वह बड़े ही उदार थे। दानी तो इतने कि खाने-पीने की जो भी चीज होती, अक्सर भूखों को बांट देते और स्वयं पानी पीकर रह जाते।

एक बार ऐसा संयोग हुआ कि उन्हें कई दिनों तक भोजन न मिला। उसके बाद मिला तो थाल भरकर मिला। उसमें से भूखों को बांटकर जो बचा, उसे खाने बैठे कि एक ब्राह्मण आ गया। वह बोला, महाराज! मुझे कुछ दीजिये।

राजा ने थाल में से थोड़ी-थोड़ी चीजें उठाकर उसे दे दीं। फिर जैसे ही खाने को हुए कि एक शूद्र आ गया। राजा ने खुशी-खुशी उसे भी कुछ दे दिया। उसके जाते ही एक चाण्डाल आ गया। राजा ने बचा-बचाया सब उसे दे दिया। मन-ही-मन सोचा, कितना अच्छा हुआ, जो इतनों का काम चला! मेरा क्या है, पानी पीकर मजे में अपनी गुजर कर लूंगा।

इतना कहकर वह जैसे ही पानी पीने लगे कि हांफता हुआ एक कुत्ता वहॉँ आ गया। गर्मी से वह बेहाल हो रहा था। राजा ने झट पानी का बर्तन उठाकर उसके सामने रख दिया। कुत्ता सारा पानी पी गया।

राजा को न खाना मिला, न पानी, पर उसे जो मिला उसका मूल्य कौन आंक सकता है!

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मंण्डल द्वारा प्रकाशित

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